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________________ [७] न लहे जिन मतमात्र जेह, तेह पात्र न कहीए। दिघार्नु परभव पुण्य फल, कांइ न लहीए ॥पात्र अपात्र विचार भेद, भोला नवि लहेस्ये । पुण्य अर्थे ते अर्थ, आथ कुपात्रे देहस्ये ॥१३॥ उखर भुमि दृष्ट बीज, तेहनो फल कहीए। अष्टम सुपन विचार एम, राजा मन ग्रहीए । एह अनागत सवि सरुप, जाणी तेणे काले । दीक्षा लीधो वीर पास, राजा पुन्य पाले ॥१४॥ ढाल पांचवी (राग-गोडी) इन्द्रभुति अवसर लही रे, पुछे कहो जिनराय । श्यु पागल हवे होयस्ये रे, तरिण तरण जहाजोरे ।। कहे जिनवीरजी ॥१॥ मुज निर्वाण समय थकी रे, त्रिहुवरसे नत्र मास । माठेरो तिहाँ बेसश्ये रे, पंचम काल निरासो रे ॥२॥ बारे वरसे मुज थकीरे, गौतम तुझ निरवाण। सोहम वीशे पामशेरे, वरसे अखय सख ठाणो रे ॥कहे ० ॥३॥ चउसठ वरसे मुज थकी रे, ज.बु ने निरवाण | प्राथमसे आदित्य थकी रे, अधिकु केवल नाणो रे ॥कहे ॥४॥ मनपज्जव परमावधि रे, क्षय उपशम मन आण | संयम त्रिण जिनकल्पनीरे, पुलागा हारग हाण रे ॥कहे०॥५॥सिजभव अठाणवेरे करश्ये दसवैालिय । चौद पुर्वि भद्रबाहुथी रे, थास्ये सयल विलय रे ॥कहे०॥६॥ दोय शत पनरे मुज थकी रे,
SR No.032213
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Sazzay Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShiv Tilak Manohar Gunmala
PublisherShiv Tilak Manohar Gunmala
Publication Year1964
Total Pages208
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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