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________________ ॥ स्तवन ॥ __हाथ जोड के अरज करूँ मेरी अरजी मानो जी हा० ॥ काल अनंत मोहे भटकत बीत्यो अब तो तारो जी हा० ॥१॥ अधम उधारण हो प्रभु तुम ही मेरी ओर निहारो जी हाo ॥२॥ तुम बिन देव नहीं ऐसा कापे जाय पुकारूँ जी हा० ॥ ३॥ सूरि कल्याण की अरज यही है भव विपति निवारो 'जी ॥ ४ ॥ इति । . ॥ शांति जिन स्तवन ॥ शांति जिनंद गुण गावो मना शिव रमणी सुख पात्रो तुम शांति ॥ मन बच काय कपट तज प्रातम, शुद्ध भावना भावो मना ॥ शांति० ॥ १॥ दया धर्म अरु शील तपस्या, करि सब कर्म खरावो मना ॥ शांति०॥२॥ माया मोह लोभ पर निन्दा, विषय कषाय नसावो मना ॥ शांति०॥ ३॥ जगवन्दन अचिरानन्दन को, निश दिन ध्याय रिझावो मना ॥ शांति० ॥४॥ जिन पद कज मधुन जाते, उत्तर ध्यान लगावो मना ॥ शांति० ॥५॥ जिन कल्याणसरि प्रभु चरण, वेर वेर लय लावो मना ॥ शांति० ॥६॥ ॥ शांति जिन स्तवन ॥ राग भैरवी। सखेश्वर पास जिनेश्वर भे टेए ॥ ए देशी ॥ श्री शांति जिन देव अरज अवधारिये। तुम त्रिभुवन के तात पतित जन
SR No.032212
Book TitlePrachin Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRampal Yati
PublisherUmravsinh Dungariya
Publication Year1933
Total Pages36
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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