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________________ ६६ ] अहवाशु चित मेलव्यु, केलव्यु पहेलां न कांइ; सेवक निपट अबुझ छे, निरवहशो तुमे सांइ श्री श्रे॥ ४ ॥ निरागी शुरे किम मिले, पण मलवानो अकांत; वाचक जश कहे मुझ मिल्यो, भकते कामणं तंत श्री श्रे० ॥५॥ (२) श्री श्रेयांस जिन अंतरयामी, आतमरामी नामी रे, अध्यातम मत पूरण पामी, सहज मुगति गति गामी रे ॥ श्री श्रे० ॥१॥ सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण आतमरामी रे; मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निकामी रे श्री श्रे० ॥ २ ॥ निज स्वउप जे किरिया साधे, तेह अध्यातम लाहीए रे, जे किरिया करी अउगति साघे, ते न अध्यातम कहीए रे ॥ श्री श्रे०॥ ४॥ नाम अध्यातम ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडोरे, भाव अध्मातम निज गुण साचे तो तेह शुं रढ़ मंडो रे ।। श्री श्रे० ॥ ४॥ शब्द अध्यातम अरथ सुणो ने निर्विकस्प आदरजोरे, शब्द अध्यातम भजना जाणी, हान ग्रहण मति धरजोरे ॥ श्री श्रे० ॥ ५॥ अध्यातमी जे वस्तु विचारो, बोजा जाण लबासी रेवस्तु गते जे वस्तु प्रकाशे, आनंदघन मत वासी रे ॥ श्री श्रे० ॥६॥ (१२) श्री वासुपूज्य स्वामी का स्तवन स्वामी तुमे कांइ कामण कीधु, चित्तहुँ अमारु चोरी लीधु; अमे पण तुमशुं कामण करशुं, भगते ग्रही मन घरमां घरशुं साहिबा वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य जिणंदा ॥१॥ मन घरमां
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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