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________________ [ ५२ ] (३) श्री संभवजिन स्तवन . ( १ ) साहिब सांभलो रे, संभव अरज अमारी; भवोभव हुँ भम्यो रे, न लही सेवा तमारी नरक निगोदमां रे, तिहां हुं बहु भव भमियो, तुम विना दुःख सह्या रे, अहोनिश क्रोघे धम धमियो ।साहिब०॥१॥ इंन्द्रियवश पडयो रे, पाल्यां व्रत नवि सूंसे, त्रस पण नवि गण्या रे, हणिया थावर हुसे। व्रत चित्त नवि धर्या रे, बीजुं साचुन बोल्यु, पापनी गोठड़ी रे, तिहां में हईडुखोल्युं । साहिब० ॥ २॥ चोरी में करी रे चउविह अदत्त न टाल्युं; श्री जिन आणशुं रे, में नहि संयम पाल्युं मधुकरतणी परे रे, शुद्ध न आहार गवेख्यो, रसना लालचे रे नीरस पिंड उवेख्यो । साहिब० ॥ ३ ॥ नरभव दोहिलो रे, पामी मोहवश पडियो, परस्त्री देखीने रे, मुज मन तिहां जई अडियो। काम न को सर्या रे, पापे पिंड में भरियो, शुद्ध बुद्ध नवि रहीरे तेणे नवि आतम तरीयो । साहिब० ॥ ४ ॥ लक्ष्मीनी लालचे रे, में बहु दीनता दाखी, तो पण नवि मली रे, मली तो नवि रही राखी। जे जन अभिलषे रे, ते तो तेहथी नासे तृण सम जे गणे रे तेहनी नित्य रहे पासे । साहिब० ॥ ५॥ धन्य धन्य ते नरा रे, अहेनो मोह विछोड़ी विषय निवारी ने रे, तेहने धर्म मां जोड़ी। अभक्ष्य ते में भाख्यां रे, रात्रि भोजन कीधां व्रत नवी पालीयां रे, जेहवा मुलथी लीघां । साहिब० ॥ ६ ॥ अनंत भव हुं भन्यो रे, भमतां साहिब मलोयो तुम विण कोण दीए रे ? बोधि
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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