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________________ . [ ६१ ] जे समकित थी होय उपरांठा, तेना सुख जाय नाठां रे जे कहे जिन पूजा नवि कीजे, तेहनु नाम न लीजे रे ।। ३ ।। वप्राराणी नो सुत पूजो जिम संसारे न घूजो रे भवजल तारक कष्ट निवारक नहि कोई एहवो दूजो रे ॥४॥ श्री कितिविजय उवनायनो सेवक, विनय कहे प्रभु 'सेवो रे अण तत्व मनमांही अवधारी, वंदो अरिहंत देवो रे।। ५ ।। मुज मन पंकज भमरले श्री नमि जिन जगदीशो रे ध्यान धरु नित्य तुम्ह तणु नाम जपु निशिदिशो रे ॥ १ ॥ चित्त थकी कदीये न विसरे देखिये आगले ध्याने रे अंतर जापथी जाणीये दुर रह्मां अनुमाने रे ॥२॥ तु गति तु मति आसरो तुहि ज बांधव मोटो रे वाचक जस कहे तुज विना अवर प्रपंच ते खोटो रे ॥ ३ ॥ (२३) श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन अंतरजामी सुण अलवेसर, महिमा त्रिजग तुमारो; साँभलीने आव्यो हुं तीरे, जन्म मरण दुःख वारो; सेवक अरज करे छे राज । अमने शिवसुख आपो ॥१॥ सहुकोनां मन-वछित पूरो, चिंता सहुनी चूरो अहवु बिरुद छे राज ! तमारू, केम राखो छो दूरे ? ॥ सेवक० ॥२॥ सेवकने वलवलतो देखी, मनमां महेर न धरशो करुणासागर केम कहेवाशो ? जो उपकार न करशो ॥सेवक०॥३॥ लटपटनु हवे काम
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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