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________________ [ ८६ ] जोतां मूरति जेहनी रे, उल्लसे नजर न आय, तेहवाशुजे प्रीतडी रे, ते सामो संताय जिनेसर ! • ॥ ४॥ तिणे हरिहर सुर परिहरी रे, मन घरी ताहरी सेव; दानविजय तुम दरशने रे, हरतिल छे नित्यमेव जिनेसर ॥५॥ (२१) श्री नमिनाथ जिन स्तवन (१) श्री नमिजिननी सेवा करतां, अलिय विधन सवि दूरे नासे जी; अष्टमहासिध्वि नवनिधि लीला, आवे बहु महमूर पामे जी ; श्री० ॥१॥ मयमत्ता अंगण गज गाजे, ___ राजे तेजी तुंखार ते चंगाजी बेटाबेटी बांधव जोडी, लहीयें बहं अधिकार रंगा जी ; श्री० ॥२॥ वल्लभसंगम रंग लहीजे, अण वहाला होये दूर सहेजे जी; वांछातणों विलंब न दूजो, कारज सीझे भूरी सहेजे जी ; श्री० ॥ ३ ॥ चंद्र किरण यश उज्जवल उल्लसे, सूर्य तुल्य प्रतापी दीपे जी; जे प्रभु भक्ति करे नित्य विनये, ते अरियण बहु प्रतापी झीये जी ; श्री०॥४॥
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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