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________________ णयणदिविरइयउ [३. ७. ७घग्घर-घवघवरर्वण सहतउ मम्मणगिरहि डिंभ मोहंतउ । कंचणकडिदोरय णासंतउ किंकिणिकणिउ सुणेवि विहसंतउ । चलइ वलइ पडिखलइ सुहावहु जिणजम्माहिसेट णं सयमहुँ । उट्ठइ पडइ रडइ सुणडइ किह वासारत्तै पत्ते सिहिगणु जिह। १० घत्ता-इय लीलय कीला तहाँ सुयहा अट्ट वरिस गय जावहि । मगहरणिय घरिणित सहुँ चवइ सहरिसु वणिवइ तावहि ॥७॥ किं वित्थरेण' हले कहमि तुझु पडिहासइ एहउ मंतु मुज्झु । पाढणही णिमित्ते गंथसत्थ - देविणु सहसा परिहाणवत्थ । मुणिवरही समप्पमि पुत्त ताम सहत्थवियक्खणु होइ जाम। गुरुसिक्खालाव सिसुर्त दिण्ण लग्गहि जिह घडए अपक्कि कण्ण । सामग्गिरइयवज्जियअवज्जु भणु पुण्यहिँ को सिज्झइ ण कन्जु । सोहइ परिमिउ माणसणीहि सिसु रायहंसु णं हंसणीहि । गंपिणु चेईहरि मुणिवरिंदु पुजिउ णं इंदे जिणवरिंदु। उवणिय छत्तय चोल्लय मणोज वसुभेय रइय जिणसुयहा पुज । पुणु लिहिवि सिद्धमाइयकमेण घोसाविउ सो मुणिपुंगमेण । लीलण पढंतु सुंदरु विहाइ कुंभेण भरिजइ बुंभु णाइ। घत्ता-पहसियमणु अणुदिणु मुणिपवरु वणिवरिंदअंगरुहहो । सुपसत्थई सत्थई वजरई रिसहणाहु जिह भरहही ।।८।। संधि चंग धातु लिंग। लक्षणेक कव्य तक। छंद देसि. णाम रासि । दिण्ण दिहि लुक्क मुट्ठि। ७. २ ख घुग्घुर। ३ क भासंतउ। ४ °सए सयसमहु। ५ ख जामहि । ६ ताम्वहि। ८. १ घ वित्थरेमि। २ ख सुप्पत्थ। ३ ख ग घ वजियउवज्जु । । ४ क ख ग घ मउ । ५ क मुरिण। ६ क गंथई बहु कहइ । ६. १ क इट्ठि।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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