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________________ संधि ९ १. व्यंतरदेव की युद्धलीला उस वणिग्वर के कारण वह उद्भट-भ्रकुटी युक्त, भयंकर-मुख व्यंतर देव, भटों के समूह का स्तम्भन करके महायुद्ध में राजा से ऐसा भिड़ा, जैसे एक सिंह दूसरे सिंह से भिड़े। चंपापुर रूपी उत्तम कमल के सूर्य, दुष्ट शत्रु रूपी पुष्पसमूह को चूर करने वाले तथा अपने प्रताप से सुरेन्द्र को भी भयभीत करने वाले धाईवाहण नरेन्द्र को झट से उसके गुप्तचर पुरुषों ने जाकर वह सब वृत्तान्त कह सुनाया जो उन्होंने मसान के बीच देखा था। वे बोले-“हे देव-देव, उस बनिये ने आपके भृत्यों को अवरुद्ध कर दिया। वे प्रहार करते समय स्तम्भित हो गये हैं।" तब राजा ने दूसरे भट भेजे, किन्तु उस व्यंतर ने उन्हें भी भयभीत कर डाला। अन्य अन्य जो जो भट प्रकट हुए, वे सभी झट से ही उसने निष्प्राण बना दिये। उसी समय किसी एक बुद्धिमान ने सहसा राजा को नमन करके कहा-“हे देव, वहां उस वणिग्वर का पक्षपाती कोई एक बड़ा साहसी देव या राक्षस प्रगट हुआ है। उसका भी सैन्य बड़ा भारी दिखाई देता है, जैसे मानो समुद्र ने अपनी मर्यादा छोड़ दी हो।" यह सुन कर राजा क्रोध से जल उठा, जैसे मानों अग्नि पर घृत सींच दिया गया हो। वह बोला-"त्रिभुवन में जो कोई उस वणिक् का पक्ष करेगा, उसे मैं आज ही यम के मुख में भेज दूंगा।" राजा के वचन से गम्भीर समरतूर्य बजने लगा, जैसे मानो प्रलयकाल का मेघ गरज रहा हो। उस रणभेरी को सुन कर कोई योद्धा ऐसा पुलकित हुआ और फूल उठा कि उसका तंग कवच ही टूट गया। कोई भट अपना प्रत्यंचा चढ़ा हुआ धनुष ग्रहण करते, उस मुनिवर के समान दिखाई दिया, जो सगुणधर्म का उपदेश देता है। कोई भट अपने दोनों तरकसों से ऐसा चमक उठा, जैसे मानों खगेश्वर (गरुड) आकाश में उड़ रहा हो। कोई विजयलक्ष्मी रूपी विलासिनी की वांछा करने लगा। (यह विलासिनी छंद कहा गया )। कोई सुभट रण के आवेग से एक बड़ा खम्भा उखाड़ कर दौड़ पड़ा, जैसे मानों मद भराता हुआ, स्थिर और स्थूल सूड वाला, दुर्निवार ऐरावत हाथी प्रगट हुआ हो। २. भट-भार्याओं की वीरतापूर्ण कामनाएं कोई स्त्री अपने पति के गले से लग कर कहने लगी कि वहां उद्भट भटों के साथ तुमुल संग्राम करके सुविशाल ध्वजपताकाएं लेते आइये, जिससे मैं घर की वन्दनमालाएं बनाऊंगी। कोई कहती कि आप जा कर मेरे लिए सिन्दूर से लिप्त व चमकीले मोतियों से अलंकृत, शत्रु के गजों के सिरों का पुंज लेते आइये, जिससे मैं अपने घर में मंगल घट स्थापित करूंगी। कोई कामिनी कामातुर हुई कहने
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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