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________________ ८. ४१] सुदर्शन-चरित २२७ किसी ने कहा-'मैं अब राम बनता हूं और विट (नकली) सुग्रीव का मान दलन करता हूं। किसी ने कहा-'मेरे लिये ही तो शत्रु पर्याप्त नहीं, योद्धाओं का समूह क्यों भेजा जा रहा है ?' किसी ने कहा-'गर्जना क्यों कर रहे हो, विरला ही कोई ऐसा होता है, जो अपने स्वामी का कार्य सिद्ध कर दिखावे।' इस प्रकार गरज कर, यशलंपटी सुभटों ने दौड़ कर वणिग्वर सुदर्शन को चारों ओर से ऐसा घेर लिया, जैसे कहीं किसी बड़े हाथी को कुत्ते घेर लें। ३९. खबर पाने पर मनोरमा की दशा जब वणिग्वर मार डालने के लिये ले जाया गया, तब नगर में लोगों ने हाहाकार मचाया। किसी ने यह बात उसकी प्रफुल्लकमल सदृश मुखवाली पत्नी को जा कही-“तेरा कान्त राजा की पत्नी के प्रति चूक गया है। इसलिए वह दुःसह मरणावस्था को प्राप्त हुआ है।" यह सुन कर मनोरमा उठती, गिरती, उरस्थल को हाथों से पीटती, आंखों के आंसुओं से स्तनों को सींचती व तन को पसीने के विन्दुओं से आच्छादित करती, मणिमय हारों के डोरों को तोड़ती, मुख की सुगन्धि वायु के कारण एकत्र होते हुए भौरों का निवारण करती, अति दीर्घ और उष्ण श्वास छोड़ती, पवन से आहत लता सदृश कांपती तथा 'हाय-हाय नाथ, यह आपने क्या किया ?' ऐसा कहती हुई, चलते चलते उस स्थान पर पहुंची। उन समस्त भटों की पुनः पुनः निंदा करती हुई मनोरमा ऐसी प्रतीत हुई, जैसी केशग्रहण के समय मन में रुष्ट हुई, रुदन करती हुई पांचाली (द्रौपदी)। ४०. मनोरमा-विलाप ___मनोरमा पुकार मचाने लगी-हाय-हाय नाथ, आपको छोड़ कर मुझे कौन सहारा देगा? हाय-हाय, नाथ-नाथ, जगत् सुन्दर, संपदा में प्रत्यक्ष पुरंदर । हाय-हाय नाथ, जन-वल्लभ, अमरांगनाओं के मन-दुर्लभ । हाय-हाय नाथ, आनन्ददायी, जिनेन्द्रों और महर्षियों का वन्दन करने वाले, हाय-हाय मकरध्वज, हिंसादिक दोषों के निर्लोभी ( त्यागी)। हाय-हाय नाथ, यह क्या सोचा जो आपने जाकर पर स्त्री का सेवन किया ? हाय-हाय नाथ, आपका व्रत भंग हुआ। वज्र के स्तंभ में यह घुन कैसे आ लगा? हाय-हाय नाथ, इस परस्पर विरोधी बात पर मेरे चित्त में भरोसा नहीं होता। मैं जान गई कि समस्त सुर और असुर नपुंसक हैं, जब कि किसी ने भी मेरे कान्त की रक्षा नहीं की। हाय-हाय, मैं किससे कहूं ? . पराये दुःख से कोई भी दुखी नहीं होता। ४१. वह सुख-संस्मरण हाय-हाय नाथ, सुदर्शन, सुन्दर, चन्द्रमुख, सुजन, सलोने, सलक्षण, जिनमति के सुपुत्र, मुझे स्मरण आता है, तुम्हारे प्रथम समागम (दर्शन) के पश्चात् भारी
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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