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________________ २०० नयनन्दि विरचित [७.३३. कपिला की बिरह-वेदना सुदर्शन से उत्पन्न होनेवाले सुख की लोभी व परोक्ष राग में अनुरक्त उस मुग्धा ने श्वासें छोड़ते हुए तोरण खंभ का सहारा लेकर, अपनी सहेली के आगे कहा-“हे बहिन, तू मेरी वेदना को नहीं जानती, और यदि जानती है, तो भी उसे नहीं ले आती जो सज्जनों के मन और नयनों को आनन्ददायी है; जो ऐसा सुन्दर है, जैसे मानो गोविन्द का पुत्र ( प्रद्युम्न ) ही हो; जिसने इस नगर की समस्त गणिकाओं को पुष्पबाणों से घायल कर रखा है। ऐसे उत्तम गुणवान उस सुदर्शन को जिसने नहीं पाया, उस स्त्री का जीव स्पष्टतः अतिशय पापी है। उसके विरहानल से, हे सखि, मेरा शरीर ऐसा जल रहा है, जैसे अग्नि द्वारा जीर्ण तृण जले। चन्द्र भी मेरे मन को भाता नहीं है। यह जानकर अब जो तुझे भावे सो कर।" तब उस सहचरी ने मार्ग से जाते हुए सुदर्शन को देखा, तथा हँस कर कपिला को कहा ( दिखलाया)। ४. सुदर्शन से कपिला की भेंट और निराशा उस ( कपिला ) ने भी उसे स्निग्ध दृष्टि से देखा, और चित्त में अनुराग से हर्षित हो कर कहा- "हे सखि, अपने मनीष्ट के दर्शन से जो सुख होता है, वह किसी दूसरे के स्पर्शन से गाढ़ा नहीं होता। इसलिए, हे सखि, यदि तू मेरी वेदना को जानती है, तो जाकर और प्रिय वचन बोलकर, उस प्रियतम को घर में ले आ।" सखी गई और बोली-“हे पंकज-दल-लोचन, तुम्हारे मित्र के मस्तक में आज वेदना बढ़ रही है।" यह सुन कर वणिग्वर विना किसी विकल्प ( शंका ) के शीघ्र ही उसके घर के भीतर प्रविष्ट हुआ। किन्तु जब उसे इधर-उधर देखने पर भी अपना मित्र दिखाई नहीं दिया, तब उसने पूछा कि पीड़ित कपिल कहां है ? तब कपिला ने उस कामदेव को हाथ से पकड़ कर कहा-तेरे विरह में परवश होकर मैं प्रति दिन ऐसी क्षीण हो रही हूं जैसे यहां कृष्णपक्ष में चन्द्रकला। तुम दिशाओं में ( इधर उधर ) क्या देखते हो ? मेरे ऊपर दया करो। हे सुभग, मेरा चुंबन करके मुझे गाढ़ालिंगन दीजिये। कपिला और कोई बात समझती ही नहीं थी। वह तो केवल रति-सुख की वांछा करती थी। यह अहाना ( कहावत ) सच है कि 'अर्थी दोष नहीं देखता' (अर्थी दोषं न पश्यति)। तब सुदर्शन बोला-“हे सुंदरि, क्या तू नहीं जानती, तो ले, अपने हितार्थ मेरे मर्म की बात सुन ; किन्तु यह किसी दूसरे को कहना मत | मैं षंढ (नपुंसक ) हूं, सो जान ले। केवल बाहर से मैं इन्द्रवारुणि ( इन्द्रायन-इंदोरन ) के फल जैसा सुन्दर दिखाई देता हूं।" इस पर कपिला ने तुरन्त विरक्त हो कर, उस वणीन्द्र को छोड़ दिया। ( यह 'मागधनकुडिया' नाम का छन्द है)। उसी अवसर पर जिनके पति दूर हैं, ऐसी महिलाओं के मन को संतप्त करने वाला सुहावना वसन्त मास आया।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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