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________________ १९२ नयनन्दि विरचित [६.७करता हूं। ( यह मन्दचार छंद कहा गया है )। साकल, रस्सी, विष, अग्नि व अस्त्र-शस्त्र, इन्हें किसी को देना नहीं चाहिये तथा कर जीवों की ओर मन में उपेक्षा करना चाहिये। ७. सामायिक आदि शिक्षाव्रत रौरव नरक को उत्पन्न करनेवाले शल्यों, कषायों और मदों का भले प्रकार से त्याग करके चित्त में समता भाव धारण करना चाहिये, तथा दोषमुक्त धर्म का स्मरण करना चाहिये। इस प्रकार से पहला शिक्षाव्रत ( सामायिक ) होता है। दूसरा शिक्षाव्रत जैसा है, उसे मैं कहता हूं, सुनो। या तो निर्विकार उपवास करे, अथवा रूक्ष आहार, आम्ल आहार वा अर्द्धप्रमाण आहार करे। साथ ही शृङ्गार का त्याग व भूमिशयन करे। ऐसा चारों पों में कामविकार को दमन करके करना चाहिये, ऐसा जानो। तीसरे शिक्षाव्रत में अपनी शक्ति के अनुसार सुखनिधान पात्र-दान देना चाहिये । जिन भगवान ने पात्र तीन प्रकार का कहा है-उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ । जिसने रत्नत्रयरूप परमलाभ प्राप्त कर लिया है और जो व्रतधारी है, ऐसा साधु उत्तम पात्र है। जो श्रावक है, वह मध्यम पात्र कहा गया है। तथा अविरत सम्यक्त्व का धारी हीन पात्र होता है। जो दृढ़तर मिथ्यात्व और मद से उन्मत्त है, वह संक्षेप से अपात्र कहा गया है। तीन प्रकार के पात्र को दान देने से तीन प्रकार का ( उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ ) फल प्राप्त होता है; जिस प्रकार कि भिन्न-भिन्न पुरुषों के संसर्ग से शील भिन्न प्रकार प्रगट होता है। ८. पात्र-दान का स्वरूप और फल अग्गिला नाम की ब्राह्मणी पात्रदान देकर दुःखविनाशिनी, यक्षों के कटाक्षों की लक्ष्य तथा देवों और मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय यक्षिणी हुई। पात्रदान के विशेष माहात्म्य से श्रेयांस ने रत्नों की वर्षा प्राप्त की। ऐसा जान कर शीलसंयुक्त परमोत्तमपात्र को दान देना चाहिये। जिनमन्दिर में, अथवा मार्ग में, अथवा प्रांगण में, सन्तुष्ट मन से उसकी पड़गाहना करके शुचि प्रदेश में उच्चासन देना चाहिये, और उसके दोनों चरणकमल धोने चाहिये। फिर उस जल की वन्दना करके साधु की विधिवत् अर्चना करना चाहिये। उन्हें प्रगाम करना चाहिये और मन-वचन-काय की शुद्धि सहित भावना करनी चाहिये । इस प्रकार जो दान दिया जाता है, वह अविचल तथा वट-बीज के समान बहु फलवान होता है। अपात्र को दिया दान कैसा विफल जाता है, जैसे ऊसर क्षेत्र में बोया हुआ बीज। सुवर्ण, रत्नसमूह शयन, आसन, धन, धान्य, भवन, भोजन तथा वस्त्र, यह जो कुछ दीन-दुखियों को दिया जाता है, वह कारुण्य-दान कहलाता है। परिग्रह का परित्याग कर, सन्यास ग्रहण करना चाहिये। यह चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है। इन श्रावक व्रतों का पालन करके मनुष्य स्वर्ग जाता है, और वहां चंचल हारों और मणियों से भूषित रमणियों का रमण करता हुआ चिरकाल तक रहता है।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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