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________________ १८८ नयनन्दि विरचित [ ५.१०. रूपी मातंग ने उन्मूलित कर डाला। शशी रूपी हंस पक्षी ने गमन की तैयारी की। सघनतम अंधकार रूपी गज का वैरी रवि रूपी सिंह उदयाचल के शिखर पर दिखाई दिया। पूर्व दिशा रूपी वधू के लीलाकमल के सदृश अरुणवर्ण रवि उद्भासित ( उदित) हुआ। जैसे मानो वह योग का सौधर्मादि स्वर्गरूप फल हो, गगन रूपी अशोक का पुष्पगुच्छ हो, दिनश्री रूपी प्रवाल की बेल का कंद हो तथा नभश्री के भाल का केशरमय ललाम विन्दु हो। तत्पश्चात् चौथे दिन नये वर को बांधा हुआ सूत का कंकन छोड़ा गया। अपनी वल्लभा के साथ खूब क्रीड़ा करते हुए व इच्छित कामभोग भोगते हुप बहुत दिनों के पश्चात् नयनों को आनन्ददायी सुदर्शन के पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सुकान्त नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह तरुणियों के नयनों व मन का अपहरण करनेवाला, लोगों को प्रसन्न करनेवाला मानों प्रत्यक्ष मकरध्वज ही था। इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित, पंचनमस्कार के फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में जिस प्रकार मनोरमा अत्यन्त विरहकातर हुई, जैसा विवाह, जैसा मनवांछित भोजन हुआ, दिनेश का अस्त तथा जैसी सुरतक्रीडा व सूर्योदय हुआ, इनका वर्णन करनेवाली पांचवी संधि समाप्त । संधि ॥ ५ ॥
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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