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________________ १८० नयनन्दि विरचित [ ४. ११प्रच्छन्न दोषों के संस्मरण से, इन कारणों से चंचल मन वाली युवती स्त्रियां अशुद्धभाव को धारण करती हैं। इसके फलस्वरूप स्त्री अपने मुखकमल को विकसित करती है, हाथ देती है, नाभि व स्तन दिखलाती है, ढाकती है और फिर मधुरभाव से उघाड़ती है, केश बन्ध छोड़ती है, तनको मोड़ती है, 'आसक्त हो गया' कह कर पुरुष को लक्ष्य करती है, तथा हटकर अपने को छुपाती है ! इस भाव को विचक्षण लोग ही समझ सकते हैं।- बुद्धि से ही यह भाव संकीर्णता को प्राप्त होता है। इस भाव से युक्त स्त्री को उत्तम वस्त्रों, अच्छे विभूषणों, चाटु वचनों, भोगों, शरीर-सौन्दर्य तथा चतुर दूत इत्यादि उपायों से अपनी ओर आकर्षित करना चाहिये। ११. इङ्गित वर्णन हे जिनेन्द्र के चरणरूप कमलों के भृङ्ग (सुदर्शन ), सुनो। गमन, निद्रा, भय, रोष, स्नेह, अनमन, दुःख, भूख, काम और निष्काम, ये इंगितों के नाम हैं। गमनेंगित से शून्यालाप होता है, तथा मुख मोड़कर स्नेह से देखती है। निद्रा इंगित से जम्हाई आती है; वह स्त्री आंखों को मीचती और गर्दन झुकाती है। भय इंगित से स्त्री बहुत दीनमुख व कम्पितशरीर होती तथा उसके नेत्र-चंचल हो उठते हैं। रोष इंगित से स्त्री अपना ओंठ चबाती व खेद प्रदर्शित करती है; तथा उसकी आंखें लाल हो जाती, नासिका फरकने लगती और खूब पसीना आने लगता है। स्नेह-इंगित से स्त्री अपने हृदय की गुप्त बात को प्रकट कर देती और मुख को प्रफुल्लित करती है ; हे सुभग ( या सुहृद् ) यह समझ लो। अनमन-इंगित से मुख लाल हो जाता, वाणी शून्य हो जाती तथा नेत्रों में किंचित् अन आ जाते हैं। दुख-इंगित से पहले की कान्ति नष्ट हो जाती है और मुख से स्पष्ट वाणी नहीं निकलती। बुभुक्षा इंगित से कपोल क्षीण हो जाते, गति विचलित होती ( लड़खड़ाने लगती ) और पैर आगे को नहीं चलते । काम इंगित से स्त्री अपना केश-कलाप छोड़ने लगती और शरीर के समस्त विकार दिखाने लगती है। निष्काम इंगित से स्त्री दोषों को लेती, गुणों को ढांकती वा स्वेच्छा से संचलन करती है। जिस प्रकार धूम के द्वारा अग्नि, तथा फूल से फल की सम्भावना की जाती है, उसी प्रकार बुद्धिमानों द्वारा बतलाये गये इंगितों से (स्त्री) जन के भाव को समझना चाहिये। १२. त्याज्य स्त्रियों के लक्षण हे गुणवान मित्र, उक्त प्रकृतियों, सत्वों, भावों, दैशिकों, अंशों तथा इंगितों के द्वारा सुन्दर देह व स्नेह करनेवाली स्त्री को जानिये और मानिये। जो बहुभ्रमण हो, अनमनी हो, कोलाहल करनेवाली हो, धनलोलुपी, खल का संग करनेवाली, रूग्णांगी, विकराल, निद्रालु, अविदग्ध, शोक-सम्पन्न, निलज्ज, कार्यनाशिनी हो,
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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