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________________ ३. ७ ] सुदर्शन-चरित १७१ होकर अपने पुत्र का ऐसा जन्मोत्सव किया, जैसा कि सानन्द इन्द्र द्वारा जिनवर का जन्मोत्सव किया जाता है । ५. प्रकृति ने भी जन्मोत्सव मनाया उस पुत्र के उत्पन्न होने से लोगों को सन्तोष हुआ । आकाश में बड़े-बड़े मेघों ने जल-वृष्टि की। नगर का दुष्ट और पापी वर्ग त्रस्त हुआ । नभ में देवों ने हर्ष और आनन्द की घोषणा की । तुष्टिदायक दिव्य दुंदुभी-घोष हुआ । समस्त वन प्रफुल्लित हो फूलों की वर्षा करने लगा । आनन्दकारी मन्द पवन चलने लगा। बावड़ी और कूपों में अत्यधिक जल भर आया । गउओं के समूहों ने अपने स्तनों से दूध गिराया । आने जाने वाले पथिकों से मार्ग अवरुद्ध हो गया । फिर जन्म से छठे दिन उस वैश्य ने उत्कृष्ट रूप से झटपट छठी का उत्सव मनाया। जब आठ और दो अर्थात् दस दिन व्यतीत हुए तब उस पुत्र की जिनदासी नाम की माता अनुराग सहित उस सुकुमार एवं देवेन्द्र के समान देहधारी बालक को लेकर भक्तिपूर्वक जिनमन्दिर को गई । उसने मुनिराज के दर्शन किये और उनसे पूछा । ( यह छन्द मत्तमातंग नामक है ) । जैसा मन्दर पर्वत स्थित है, वैसे ही बुधजनों ने कुंभ राशि को कहा है मेरे पुत्र की इसी राशि का विचार कर, हे मुनिराज, उसका नाम रखा जाय । ६. पुत्र का नामकरण सेठानी की यह बात सुनकर कामदेव को नाश करनेवाले वे यतीश मेघ के समान ध्वनि करते हुए बोले- हे पुत्री, तूने स्वप्न में सुन्दर और उच्च सुदर्शनमेरु को देखा था, अतएव इस पुत्र का नाम भी सज्जनों और कामिनियों को कर्णमधुर 'सुदर्शन' रखा जाय। इसे सुनकर जिनदासी यतिराज को नमस्कार करके अपने चित्त में खूब हर्षित होती हुई अपने निवास को लौट आई। फिर शुभ मास और शुभ दिन में एक उज्ज्वल और सुविचित्र पालना बांधा गया । उसमें स्थित वह बालक ऐसा बढ़ने लगा जैसे देवपर्वत सुमेरु पर सुरबालक, व्रतपालन में धर्म, प्रिय के अवलोकन में प्रेम तथा नयी वर्षाऋतु में कंद बढ़ता है । ( यह दोधक छंद प्रकाशित किया) । जिस प्रकार जगत का अन्धकार दूर करनेवाला चन्द्र, जगत में मदरूपी अन्धकार फैलानेवाला मकरध्वज ( कामदेव ) अथवा जग के अप्रसन्नतारूप अंधकार को दूर करनेवाला मकरगृह (समुद्र) बढ़ता हुआ सुहावना लगता है; उसी प्रकार सज्जनों का मनवल्लभ वह दुर्लभ पुत्र रत्न बढ़ता हुआ पुरदेव (ऋषभनाथ ) के पुत्र (भरत) के समान सुहावना लगने लगा । ७. बालक्रीड़ा तरूणी स्त्रियां उस बालक को 'हुर्रे', 'हुल्ल' आदि उच्चारण करके खिलाने लगीं । वे उसे अपने सघन स्तनों के शिखर ( वक्षस्थल ) पर रख लेतीं या हाथों में लेकर
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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