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________________ १६८ नयनन्दि विरचित [ २. १५चल पड़ा। (यह तोडनक छन्द कहा गया है)। वह गोप, जिसकी आयु थोड़ी रह गई थी, परमेष्ठी पदों का ( पंचणमोकारमन्त्र का ) स्मरण करके नदी में कूद पड़ा, जैसे मानों वह विष से भरी नागिनी के मुख में या यम की दृष्टि में जापड़ा हो। १४. नदी में एक खूट से फंसकर सुभगगोप की मृत्यु वहाँ जल के बीच एक ठूठ था, जो ऊपर को उठा और सूखा होने से उस गगन के समान था, जिसके ऊपर शुक्र (ग्रह) का उदय हुआ हो। वहां मछलियाँ भी थीं, और इसलिए वह मीन राशि युक्त गगन के समान था। वह कर्कश और विचित्र (फटकर नुकीला ) था, अतएव कर्कराशि और चित्रा नक्षत्र से युक्त गगन के समान था। जल में डूबा हुआ वह खूटा कैसा दिखाई देता था जैसे मानो उस गोप का प्राण हरण करनेवाला काल ही खड़ा हो। गोप के गोता लगाते ही ठूठ उसके हृदय में चुभ गया और मर्म स्थलों को ऐसा चीरने लगा जैसे खल के वचन । उस ठूठ ने उस के हृदय को चीर डाला और उसकी पीठ के मांस का भी भक्षण कर लिया। इस प्रकार उसके कर्म से वह ठूठ भी मांस-भक्षी राक्षस बन गया। गोप विह्वल होकर अपने अंग को ऐसे छटपटाने लगा, जैसे जल के मध्य जाल में फंसकर मछलियों का समूह छटपटाता है। उसके हाथ-पैर चलने बन्द हो गये, जैसे किसी दुष्ट राजा का ग्राम ऊजड़ होकर वहां प्रजा का आवागमन व करदान की क्रिया बन्द हो जाती है। उस समय गोप ने अपनी देह का शोक छोड़ सहज ही यह निदान बांधा-"यदि इन पंच पदों ( अर्थात् पंच परमेष्ठी णमोकार मंत्र ) का कोई फल हो तो मेरा अगला जन्म उसी वणिक्कुल में हो, जिससे मैं अपने पापों के मैल को नष्ट करके बहु-सुख रूप मोक्ष को जा सकू"। १५. पंच णमोकार मंत्र की महिमा जिस प्रकार पंचेन्द्रियों से मन शोभायमान होता है, पंचवर्ण पुष्पों से उपवन, पंच वाणों से मन्मथ, पंच पांडवों से भारत, पंच अणुव्रतों से भव्य-जन ( श्रावक ), पंच महाव्रतों से मुनिगण, पांच-पांच भावनाओं से व्रत-क्रम, पंच आचारों से श्रेष्ठ ऋषि, पंच महाकल्याण से जिन, पांच अस्तिकायों से त्रिभुवन, पांच मन्दरों से महीतल, पांच आश्चर्यों से दान का फल, पंचाङ्ग मंत्र से महीपति, पंचविध ज्योतिषी देवों से नभ, तथा पांचसौ योजनों से प्रमाण योजन, उसी प्रकार पंचनमोकार मंत्र सहित मरण करना बड़ा शुभ है। मन को खेंचकर जो आनन्द सहित णमोकार मंत्र के पांच पदों का ध्यान करते हैं, वे नीति का आनन्द लेते हुए अष्टगुणालय-सिद्धालय को प्राप्त करते हैं, ऐसा नयनन्दि कहते हैं। ___ इति माणिक्यनन्दि विद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में त्रिलोक, विषय, पुर, नृपति, सेठ, उसकी गृहिणी, फिर सुभग गोप के मुनि के समीप पुण्यार्जन, नदी के महाजाल में ठूठ से हृदय विदारित होने से मरण, इनका वर्णन करनेवाली दूसरी सन्धि समाप्त । सन्धि ॥२॥
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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