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________________ नयनन्दि विरचित [२. ११दोषों में आसक्त होता है। इस प्रकार उसकी अकीत्ति फैलती है। इसीलिए इसका त्याग करना चाहिए। मांस का भोजन करनेवाला वन राक्षस मारा गया और नरक को प्राप्त हुआ। मदिरा द्वारा प्रमत्त हुआ मनुष्य कलह करके अपने इष्ट मित्रों की भी हिंसा कर बैठता है, रास्ते में भी गिर पड़ता है, तथा हाथ ऊँचे कर विह्वलता से नाचने लगता है। मद्यपान से मदोन्मत्त होकर समस्त यादव नाश को प्राप्त हुए। वेश्या राक्षसी के समान रक्त चूसनेवाली है; केवल वह अपना वेष सुन्दर दिखलाती है। उसका जो सेवन करता है, वह कायर उच्छिष्ट भोजन खाता है। वेश्या में प्रमत्त होकर यहाँ चारुदत्त सेठ भी निर्धन हो गया और दीन वेश बनाकर बिखरे बालों सहित पराङ्मुख होकर भागता फिरा। जो शूरवीर होते हैं, वे शबर होकर भी उन वनमृगों के समूहों को नहीं मारते जो वन में तृण चरते हैं, और खड़-खड़ आवाज़ सुनकर भी अत्यन्त डर जाते हैं। इन्हें मूर्ख शिकारी न जाने क्यों मारता है ? इन बेचारों ने क्या किया है ? आखेट में आसक्त होकर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भी नरक को गया। चंचल और ढीठ चोर अपने गुरु तथा मां बाप को भी इष्ट नहीं मानता। वह अपने भुजबल से व छल से उन्हें भी ठगता है, और दूसरों को भी। वह मूर्ख भय के कूप में पड़कर न नींद पाता है और न भूख । ( यह विद्युल्लेखा नाम से सुप्रसिद्ध पद्धडिया छन्द है)। चोर पकड़ा जाता है, बाँधकर ले जाया जाता है, एवं मागों और चौराहों पर घुमाकर दंडित किया जाता है, तथा नगर के बाहर खंड खंड किया और मारा जाता है। ११. चोरी के कुफल पराये धन में आसक्त होने से अंगार नामक चोर शूली पर चढ़ाया गया और मरण को प्राप्त हुआ। यह देखकर भी मनुष्य मन में मूर्खता धारण कर चोरी करता है, छोड़ता नहीं। जो इस जन्म में परस्त्री की अभिलाषा करता है वह निःश्वासें लेता है, गाता है, हँसता है, विरह से दुःखी और पतित अवस्था में रहता है। जब उसे प्रेम करने नहीं मिलता तब वह अपने भित्र से कहता हैहे मित्र, तू जा, और प्रार्थना करके शीघ्र उसे मेरे घर लाकर मेरे उर से लगा। वह स्वयं भी सैकड़ों उपाय रचता है। यदि कोई युवती सती हुई और उससे राजी नहीं हुई, तो उसे सुख लाभ नहीं होता। वह लोगों को अपना अतिदीन मुख दिखाता है, और मन में झूरता है। अथवा, यदि कोई चंचला अबला उससे राजी हो गई, तो उसे लेकर किसी देवालय के शिखर पर या किसी सूने घर में जाकर स्वयं उससे रमण करता है। वह थोड़ा भी स्वर सुनकर डर जाता है। मन में थर्राकर शरीर से कंपते हुए, चुपचाप दरकता है, भागता है, और गिरता है। जब उसे कोई हाथ से पकड़ लेता है, तो वह गधे पर चढ़ाया जाता है, निकाला जाता है, तथा मारा जाता है। जगत् में यह सब सहकर, वह ( मरने पर) नरक में पड़ता है। रावण आदि अज्ञानी बनकर परस्त्री-रत हुए और चिरकाल के
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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