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________________ २. ६ ] सुदर्शन-चरित द्धा के समान था, जो प्रत्यंचायुक्त धनुष रखता हुआ, ( समर में ) कभी पराङ्मुख होना नहीं चाहता । सगुण धनुष रखता हुआ भी, वाणों को ( निरपराध ) दूसरों की ओर नहीं चलाता था । उस जगविख्यात राजा की अभया नाम की रानी थी, जो कामदेव की रति, राम की सीता व इन्द्र की इन्द्राणी के समान थी । ५. ऋषभदास सेठ की गुण-गाथा १६३ उसी नगर में ऋषभदास नाम का सुप्रसिद्ध और धन-संपन्न राजश्रेष्ठी रहता था । वह समस्त कलाओं से सम्पन्न था, और पृथ्वीमंडल भर का प्रिय था; अतएव वह समस्त कलाओं से पूर्ण कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्र के समान था । वह नीतिवान् होने से नयों का प्रतिपादन करनेवाले जैनशासन के समान शोभायमान था । अथवा, वह विशेष ज्ञानी होने से गरुड़वाहन माधव के समान था ; तथा दानशील होने से वह इन्द्र के हाथी के समान था जिसके सदा मद मरा करता है । वह निर्दोष होने से उस सूर्योदय के समान था जो रात्रि व्यतीत होने पर होता है । वह सबको सन्तोष उत्पन्न करनेवाला होने से उस शीतकाल के समान था, जिसमें पौष मास उत्पन्न होता है । वह सबका बड़ा स्नेही था, अतएव उस भैंस के दूध के समान था, जिसमें खूब घी निकलता है । वह उन्नत मेधावी ( अर्थात् ऊंची बुद्धिवाला ) होने से उस वर्षाऋतु के समान था, जिसमें मेघ ऊपर उठे दिखाई देते हैं । वह सत्य और त्याग गुणों से युक्त होते हुए उस नगर की ऊंची दुकान के समान था, जिसमें अच्छा चावल मिलता है । वह भोगों से युक्त था; अतएव भोग ( फल ) युक्त नागेन्द्र के समान सुहावना था । वह बहुत सुलक्षणों से युक्त होता हुआ उस व्याकरण के समान शोभायमान था, जिसमें शब्दों के नाना रूप बनाने के नियम रहते हैं । उसके विशाल नेत्र कानों के अन्त तक पहुंच रहे थे; अतएव वह उस अर्जुन के समान था, जिसकी दृष्टि कर्ण की मृत्यु पर थी । वह सद्गुणों से खूब सम्पन्न होता हुआ उस चढ़े हुए धनुष के समान था जिस पर प्रत्यंचा लगी हुई है। तथा धन से सुसम्पन्न होने के कारण वह महाकवि के ऐसे कथाबंध के समान था, जो अर्थ से समृद्ध है । उस सेठ की बहुत लक्षणों से पूर्ण एवं बड़ी विचक्षणा अर्हद्दासी नाम की प्रिय पत्नी थी, जैसी इन्द्र की शची, चन्द्र की रोहिणी एवं मुरारी श्री (सत्यभामा ) । ६. अर्हदासी सेठानी तथा सुभगगोप का गुण वर्णन वह सेठानी दीर्घाक्षी व शुभ्र दन्तपंक्ति से उद्भासित ऐसी प्रतीत होती थी, मानों दीर्घकालीन रक्षा रूपी विशाल पथों युक्त व रत्नत्रय रूप रत्नों की पंक्ति से शोभायमान धर्म की नगरी ही बसाई गई हो। वह अतिप्रसन्न, कान्तियुक्त और सुखदायी होने से कुमुदनी वल्लभा चन्द्रलेखा ( चन्द्रकला ) के समान पृथ्वीमंडल भर को प्यारी थी । वह सुलक्षणों से युक्त व अलंकार धारण किये हुए, लोगों के मन को उसी प्रकार आकृष्ट करती थी, जैसे काव्य के लक्षणों से युक्त अलंकार- प्रचुर
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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