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________________ सुदर्शन-चरित १५५ बुद्धिमानों के लिये उसी प्रकार प्यारा था, कदली वृक्षों से भरा था, व गरिष्ट था, जैसा कि देवेन्द्र देवों को प्यारा है, रम्भा अप्सरा से आलिंगित है, तथा स्वयं गरिमा को प्राप्त है। वहां रति और प्रीति की खूब समृद्धि थी; तथा आकाश में वहां की मकराकृत्ति ध्वजाएं फहरा रही थीं; अतएव जो कामदेव के समान दिखाई देता था, जो रति और प्रीति नामक देवियों से युक्त है, और जिस की ध्वजा मकराकार है। वह नगर निर्मल धर्म से सुसज्जित तथा प्रफुल्लित पुष्पों वाले मनोज्ञ सरोवरों के द्वारा उस मन्मथ के समान था, जो निर्मल धनुष से सन्जित तथा पुष्पवाणों से मनोज्ञ है। वह रत्नों का स्थान, मनोहर देवालय युक्त व सम्पत्ति का निधान होने से उस अमथित उदधि के समान था जो रत्नों का अगार, मनोहर सुरा का आलय तथा श्री का निधान था। वहां की प्रजा में कभी क्षोभ नहीं होता था और वह दिव्य तरङ्गों तथा श्रेष्ठ हाथियों से शोभायमान था, जिससे वह नगर मन्थन से पूर्वकालीन उदधि के समान था, जिसके जल में मंथन का क्षोभ नहीं हुआ था; और जो दिव्य अश्व और उत्तम हाथी रूपी रत्नों से शोभायमान था। अमृतयुक्त व मेरूपर्वत द्वारा उत्पन्न कंप से रहित मन्थन से पूर्व उदधि के समान वह नगर मद मान से रहित तथा सों व वानरों के विशेष उपद्रव से सुरक्षित था ! सुरा के निवास तथा असाधारण अप्सरा जनों के विलास से युक्त अमथित उदधि के समान वह नगर सुगन्धित द्रव्यों से युक्त एवं ईष्यों से मुक्त लोगों का क्रीड़ास्थल था। ऐसे उस राजगृह नगर में अपनी कीर्ति से भुवनमात्र को धवलित करनेवाला एवं ऋद्धि से सुरेन्द्र का भी उपहास करने वाला राजा श्रेणिक अपनी चेलना नामक महादेवी सहित राज्य करता था। ५. राजा श्रेणिक का वर्णन वह श्रेणिक राजा अपने नख रूपी मणियों की किरणों से नभस्तल को लाल करता था; और अपने बाहुबल से सबल दिग्गजों के समूह को तोलता था। वह सब बातों में असाधारण था, कमलनेत्र और लक्ष्मीरूपी वधू का वर था; तथा जिस प्रकार वृक्ष पक्ष्यिों को फलदायी होता है, उसी प्रकार वह याचकों की इच्छाओं को सफल करता था। उसका मुख पूर्णचन्द्र के समान था। उसके शरीर के गुण कामदेव के मानों धनुष की प्रत्यंचा ही थे जिसके कारण वह नागों, मनुष्यों व देवों की स्त्रियों के मन को भी मोहित करता था। वह अपनी उत्तम कलाओं के समूह से कलानिधि चन्द्र का भी उपहास करता था। वह सुवर्ण के समान गौरवर्ण था; और नये मेघ के सदृश उसका स्वर गंभीर था। वह अपनी प्रभा से दुस्सह तापयुक्त सूर्य की किरणों को भी जीतनेवाला था। वह राजा प्रतिदिन परमप्रभु जिनेश्वर देव की वन्दना करता था। उसके बाल भ्रमर समूह के सदृश काले थे; और बाहु ऐरावत हाथी की सूंड के समान प्रचण्ड थे। वह अपने स्थिरता रूपी गुणों से सुमेरू पर्वत को भी जीतता था। वह जिनेन्द्र भगवान् के
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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