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________________ जानकर पंडिता ने एक कुटिल चाल चली। उसने कुम्हार से मनुष्याकृति के मिट्टी के सात पुतले बनवाये। वह प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक क्रम से एक-एक पुतला ढक कर अपने साथ लाती, प्रतोली द्वार पर द्वारपाल से झगड़कर पुतला फोड़ डालती तथा द्वारपाल को रानी का भय दिखलाकर आगे के लिए उसे चुप करा देती। इस प्रकार उसने महल के सातों द्वारपालों को अपने वश में करके अपने लिये अंतःपुर का प्रवेश निर्बाध बना लिया। अष्टमी के दिन सुदर्शन श्मशान में कायोत्सर्ग किया करता था। उस दिन जब वह सायंकाल श्मशान जाने लगा तब उसे नाना अपशकुन हुए, जिनकी चिंता न कर वह श्मशान में जाकर ध्यान करने लगा। पंडिता ने उसके पास जाकर पहले तो उसे ध्यानच्युत व प्रलोभित करने का प्रयत्न किया, किंतु जब वह अपने इस असत्प्रयास में सफल न हुई तो वह उसे उसी प्रकार उठाकर राजमहल में ले गयी जिस प्रकार वह उन मिट्टी के पुतलों को ले जाया करती थी। रानी के शयनागार में सुदर्शन को बहुत प्रलोभित किया गया, किंतु वह अपने व्रत से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुआ। रात्रि बीती जा रही थी। अतएव रानी ने निराश होकर दूसरा कपट जाल रचा। उसने अपने शरीर को स्वयं नोच-नोचकर क्षत-विक्षत कर डाला और यह पुकार मचा दी कि सेठ सुदर्शन ने बल पूर्वक अंतःपुर में प्रवेशकर उसका शील भंग करने का प्रयत्न किया। यह समाचार राजा तक पहुंच गया और उसने बिना सोचे समझे सेठ को प्राण दंड का आदेश दे दिया। राजपुरुष उसे पकड़कर श्मशान ले जाने लगे। नगर में हाहाकार मच गया और सुदर्शन की पत्नी मनोरमा ने बड़ा हृदयद्रावक विलाप किया। श्मशान में राजपुरुषों ने सुदर्शन को अपने इष्टदेव का स्मरण करने की बात कही। सुदर्शन तो पहले से ही धर्मध्यान में लीन था, ज्योंहीं उसके ऊपर शस्त्रों का प्रहार हुआ त्योंही एक व्यंतर देव ने आकर उनको स्तंभित कर दिया और इसप्रकार धर्म के प्रभाव से सुदर्शन के प्राणों की रक्षा हुई (संधि-८)। व्यंतर देव का राजा की सेनाओं से भयानक युद्ध हुआ। राजसेना के परास्त होने पर स्वयं नरेश उस व्यंतर से युद्ध करने आये, किंतु अंततः राजा को अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी और उस व्यंतर देव के आदेशानुसार सुदर्शन की शरण में जाना पड़ा। राजा ने सुदर्शन से क्षमा याचना की तथा उसे अपना आधा राज्य समर्पण करना स्वीकार किया। सुदर्शन ने राजा को तो अभयदान दिया, किन्तु स्वयं राज्य वैभव स्वीकार नहीं किया। वह संसार की भीषणता व जीवन की क्षणभंगुरता से विरक्त हो गया और उसने मुनि-दीक्षा धारण करने का निश्चय कर लिया। राजा ने सुदर्शन की स्तुति की। उधर राजा के लौटने से पूर्व ही अभया रानी ने आत्मघात कर लिया और मरकर वह पाटलिपुत्र नगर में व्यंतरी होकर उत्पन्न हुई। पंडिता भी पाटलिपुत्र भाग गयी और वहां देवदत्ता गणिका के घर रहने लगी । (संधि-६) जीवन संकट से मुक्त होकर सुदर्शन जिन मंदिर में गया। वहां इसे विमलवाहन मुनि के दर्शन हुए, जिनसे उसने अपने भवांतर पूछे। मुनि ने उसके क्रमशः
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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