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________________ ११८ पइँ जेहउ जिगिंदु पर वुच्चइ जणु वामोहगहिउ पालइ घरु किसि कब्बाडु सेव मण्णइ वरु संपत्त विवि णिवसंपय पुणु पुरम्मिणि संपत्त ओलंबिवि तरुग्र्गे' अभया मुय पंडिया विनियम संतट्ठिय यदिविरइय [ ६.२३. ३ णिहिल वि तुह गुणो को सुबइ । पाउण गणइ किं पिवंचइ परु । तवणामेण देई देहे जरु । धणु सो व जो लेइ महव्वय । तावेत्तह करेवि अवरत । पालि उत्तरे वितरि हुय । तह पाडलिहे " संमुह लहु पट्टिय । घत्ता - हि जाएविणु विउसि थिय देवदत्तगणियाई णिकेय" । इय अक्खइ णयणंदिगणि समवसरणे जिणणाहविलोयणे ॥२३॥ 93 सरपंच मोक्कारफलपयासयरे माणिक्कणंदितइ विज सीसणयनंदिणा र महासंगर वित्त सिय णिवेण वणिणाहहो समप्पिया ण गिहिया अभयाविंतरी जाइया पणासेवि बुद्दी गया यरे पाडलिउत्तर इमाण कयवण्णणो णवमो संधि समत्तओ । ॥ संधि ९ ॥ २३. २ ग घ घरु । ३ ग घ एइ । ४ ख चएइ । ५ ग घ सो जि । ६ क णिव । ७ ख जं । ८ क करेवि वरतउ; ख करइ श्रवरुत्तउ । ६ ख तरुवरि । १० क पारिउत्ते । ११ क पाडलहे ख तहु पाडलिहु समुहु । १२ क मणियाणिकेयणे । १३ कालो | ५ १०
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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