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________________ लये श्री मूलसंघे पुष्करगच्छे सेनगणे वृषभसेन गणधरान्वये भ० श्री देवभद्र देवाः तत्पट्टे भ० श्रीमत् त्रैविद्य सोमसेन भट्टारकाः तत्पट्टे भ० श्रीमदभिनव गुणभद्रभट्टारक देवाः तत् शिष्य आचार्य मानिकसेनेन लिखितं सुदर्शनचरित्रं स्वपठनाय स्व-लिपिशक्त्या। शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः। सुरत्राण साहि आलम सूरवंश पठानान्वयेश श्री साहि आलमराज्ये लिखितं । इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि उक्त प्रति संवत् १५६८ चैत्र सुदी ५ शुक्रवार गोपाचल अर्थात् ग्वालियर के समीप नरेले ग्राम के नेमिनाथ जैन चेत्यालय में लिखकर पूर्ण की गई थी। उस समय वहाँ सूरवंशी पठान सुलतान शाह आलम का राज्य था। इतिहास से सुज्ञात है कि मुगलवंशीय सम्राट हुमायूँ की अफगान शेरखान के द्वारा सन् १५३६ में पराजय हुई थी और वह पश्चिम की ओर भाग गया था। प्रस्तुत प्रति के लेखनकाल सन् १५४१ में संभवतः इसी अफगान या पठान वंश का सुलतान शाह आलम ग्वालियर के प्रदेश में शासक पद पर आरूढ़ था। यह उल्लेख उस काल के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है। इन पूर्वोक्त चार हस्तलिखित प्रतियों में से प्रथम क प्रति के आधार से ही मूल ग्रंथ की प्रथम प्रतिलिपि की गई थी। किंतु संपादन में इन चारों प्रतियों का मिलान कर जो पाठ उचित प्रतीत हुआ वही मूल में रखा गया है व अन्य पाठान्तर पाद टिप्पणियों में अंकित कर दिये गये हैं। यों तो चारों प्रतियाँ अपनी-अपनी स्वतंत्रता रखती हैं, किंतु सामान्यतः कहा जा सकता है कि एक ओर क और ख तथा दूसरी ओर ग और घ के पाठ परस्पर मिलान खाते हैं और अपनी दो प्रतिपरंपराओं को सूचित करते हैं। ग्रन्थकारपरिचय __ ग्रंथ की बारहों संधियों की पुष्पिकाओं में कवि ने अपना व अपने गुरु का नाम अंकित कर दिया है। जिससे ज्ञात होता है कि इस काव्य के रचयिता नयनंदी और उनके गुरु माणिक्यनंदी त्रैविद्य थे। ग्रंथ की अंतिम संधि के नौवें कडवक में कवि ने अपनी गुरु परंपरा कुछ और विस्तार के साथ वर्णन की है। तदनुसार महावीर तीर्थंकर की महान् आचार्य परंपरा में महान कुंदकुंदान्वय हुआ और उसमें क्रमशः सुनक्ष, पद्मनंदी, विष्णुनंदी, नंदिनंदी, विश्वनंदी, विशाखनंदी रामनंदी, माणिक्यनंदी और नयनंदी (प्रस्तुत कवि) नामक आचार्य हुए। इनमें उन्होंने विश्वनंदी को अनेक ग्रंथों के कर्ता व जगत्प्रसिद्ध कहा है, विशाखनंदी को सैद्धांतिक की उपाधि दी है, एवं रामनंदी को एक महान धर्मोपदेशक, निष्ठावान् तपस्वी एवं नरेन्द्रों द्वारा वंदनीय कहा है । अपने गुरु माणिक्यनंदी को उन्होंने महापंडित की उपाधि दी है और कहा है कि वे समस्त ग्रंथों के पारगामी, अंगों के ज्ञाता एवं सद्गुणों के निवासभूत थे। यहां स्वयं नयनंदी के संबंध में कहा गया है कि वे एक निर्दोष जगद्विख्यात मुनि थे तथा उनके द्वारा रचित इस सुदर्शनचरित का विद्वानों द्वारा अभिनंदन किया गया था।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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