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________________ 562 गाइशें, मुज मन हर्ष उछाय रे, धन्य धन्य श्री सिद्धचक्रने. ॥१।। तेह दिवसे सुरपति मळी, जाई नंदिवरद्विपरे; उत्सव महोत्सव सुर करी. कर्म कटकने जीपे रे. धन्य० ॥२॥ अठ्ठाई महोत्सव करे, जीवाभिगमनी साखे रे, श्रेणिक राये पुछीयुं, इन्द्रभूति इम दाखे रे. धन्य० ॥३॥ श्री श्रीपाळ मयणा परे, जाप जपे भव्य प्राणी रे, रोग शोकने आपदा, जीम शमे ते प्राणी रे. धन्य० ।।४।। आसो सुदि सातम थकी, पूनम लगे ओळी रे, अकयांशी नव ओळीओ, आंबील तप सुविवेक रे. धन्य० ॥६॥ साडा चार संवत्सरे, तपनो मेह परिणाम रे; गुणणुं पद ओक ओकनु, सहस दोय सुविज्ञान रे. धन्य० ॥६।। ___ (ढा. २) गुणणुं गणजो ओ पद ध्यायी रे; बार गुण अरिहंत ध्याएँ; सिद्धभजो गुण आठे रे, छत्रीश गुणे आचार्य सोहे, पचवीस उपाध्याय पाखे रे०... ।।१।। गुण सत्तावीश साधु वंदु, दर्शन सडसठ भेदे रे; ज्ञान अकावन गुणे संपुरो, चारित्र सीत्तेर उमेद रे०...।।२।। पचास भेदे तपने जपीओ, गुणणुं व्रत माहे रे; तेर सहस वली बीजे भेदे, विद्याप्रवाह वखाणे रे०... ॥३॥ अरिहंत आदे पंच पद केरा, गुण छे अकसो आठ रे; दर्शन ज्ञाननी दशावली जाणो; चारित्र षट् बहु पाठे रे०...॥४॥ तपना षट्गुण सर्व मलीने, अकसो त्रीस ज थाय रे; नवकारवाळी अह प्रमाणे, समर्थे भवदुःख जाय रे०...॥५॥ अह उजमणां विधि श्युं बोलुं, सांभळो चित्त लायी रे; उजमणाथी फल बहु वाधे, जीम जल पंकज न्याय रे०...॥६॥ ___(ढा. ३) तप जप करीओ शक्तिथी, तेह तणो छे भेद रे; शक्ति प्रमाणे उजवो, भव भवना दुःख छेद रे; वीर वचनथी जाण जयो०...॥१॥ उजमणां विण फल कहुं, जीम अलुणो धान्य रे; शक्ति घणी छे, जेहनी, पण उजवे नहीं बहु मान रे...॥२॥ तेहy फल ते कहयु, सांभळ श्रेणिक राय रे; कुकश आपे वृत्तिने, पुण्य जे ते थाय रे...॥३॥ आतम ज्ञाने धारिये, धरिओ शीयळ जगीश रे; गुरु पडिलाभीने पारीओ, स्वामी वत्सल फल लईश रे...॥४॥ पालणपुरमा प्रेमश्यु, श्री सिध्धचक्र गुण गाया रे; चतुर चोमासु तिहां रही, उजमणे मन भाया रे०...॥५॥ (कळश) इम सयल सुखकर पुरंदर पुर, संस्तव्यो रिसहेश्वरु; तप गच्छ राजे वडदीवाजे विजय जिनेन्द्र सुरीधरु. तास पसाये स्तवन पभण्यो शिष्य
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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