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________________ 279 वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य जिणंदा, अमे पण तुम शं कामण करशुं, भक्ते ग्रही मन घरमां धरशुं० (१) मन घरमां धरीया घर शोभा, देखत नित्य रहे थिर शोभा, मनवैकुंठ अकुंठित भक्ते, योगी भाखे अनुभव युक्ते० (२) कलेशे वासित मन संसार, कलेश रहित मन ते भवपार, जो विशुद्ध मन घर तुम आया, तो अमे नवनिधि ऋद्धि पाया० (३) सातराज अलगा जई बेठा, पण भक्ते अम मन मांही पेठा, | अळगाने वळगा जे रहेg, ते भाणा खडखड दुःख सहेवू० (४) ध्याता ध्यान ध्येय गुण एके, भेद छेद करशुं हवे टेके । खीर नीर परे तुमशुं मीलशुं, वाचक जश कहे हेजे हळशुं० (५) (6) श्री वासुपूज्य जिन स्तवन (राग : जरा सामे जोवानुं तने) वासववंदित वंदीयेजी, वासुपूज्य जिनराज, मानु अरुण निग्रह कर्योजी, अंतररीपु जयकार गुणाकर अद्भूत ताहरी वात, सुणता होय सुखसात गुणाकर० (१) अंतररीपु कर्म जय कर्योजी, पाम्यो केवळज्ञान शैलेशीकरणे कर्याजी, शेष करम सुहझाण - गुणाकर० (२) बंधन छेदादिक थकीजी, जई फरस्या लोकांत, जीहां निज एक अवगाहनाजी, तिहां भव मुक्त अनंत० (३) अवगाहनां जे मूळ छे जी, तेहमां सिद्ध अनंत । तेहथी असंख्यगुणा होवेजी, फरसीत जिन भगवंत० (४) असंख्य प्रदेश अवगाहनाजी, असंख्य गुणा तिणे होय, ज्योतिमां ज्योति मिल्या परेजी, पण संकीर्ण न होय० (५) सिद्ध बुद्ध परमात्माजी, आधि व्याधि करी दूर | अचल अमल निकलंकतुं जी, चिदानंद भरपुर० (६) निज स्वरूप मांही रमेजी, भेळी रहत अनंत, पद्म विजय ते सिद्धनुं जी, उत्तम ध्यान धरंत० (७) (7) श्री वासुपूज्य जिन स्तवन (राग : आजनो दिवस मने लागे) वासु पूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, घननामी परिणामी रे; निराकार साकार सचेतन, करम करमफळ कामी रे॥वा०॥ १ निराकार अभेद संग्राहक, भेद ग्राहक साकारो रे; दर्शन ज्ञान अभेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे ॥वा०॥ २ कर्ता परिणामी परिणामो, कर्म जे जीवे करीये रे; एक अनेक रूप नयवादे, नियते नय अनुसरीये रे ॥वा०॥ ३ दुःख सुख रूप
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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