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________________ 242 भरमायो, दुर्निति करी दुःख पायो; अब शरण लीयो हैं तुम्हारो मोहे भव जल पार उतारो. ॥३॥ प्रभु शीख हैये नहि धारी, दुर्गतिमां दुःख लियो भारी; इन कर्मोकी गति न्यारी, कीयो बेर बेर खुवारी. ॥४॥ तुमे करुणावंत कहावो, जगतारक बिरुद धरावो; मोरी अरजीनो अक दावो; इन दुःखसे कयुं न छुडावो.... अभि ॥५|| मे व्यर्थ जन्म गुमायो, नहि तनधन स्नेह निवार्यो, अब पारस प्रसंग पामी, नहि वीरविजय की खामी... अभि..।।६।। (2) अभिनंदन जिन स्तवन अभिनंदन जिनराज सुणो मुज विनती, विषया संगी जीवके पाप कर्या अति; मोहनी कर्मनी स्थिति उत्कृष्ट जे ऊंची, स्थानक तेहनां त्रीश सेव्यां में मनरुचि०. ॥१॥ जळमां बोळी श्वास निरोधी त्रसने, वाधर वींटी शीश मोघर मुख देईने; मुख दाबी गळे फांसो देई जीवने, हणतां बांध्यो मोह महा निर्दयपणे०. ॥२॥ हणवा वांछयुं बहु जनना अधिकारनु, कार्य कर्यु नहि ग्लान तथा निज स्वामीy; धर्म विषे उजमाळने भ्रष्ट करी हस्यो, जिन अरिहाना अवगुण कहेवा उलस्यो०. ॥३॥ आचारज उवज्झायनी निंदाये दहयो, न्याय मारग उन्मार्ग निमित्तादिक कहयो; तीर्थ गच्छना भेद कराव्या कदाग्रहि, देखी ज्ञानी ज्ञान प्रद्वेष हं घरुं वही०.॥४॥ जेहथी ज्ञान शोभा लई तेहने दुभव्यां, माया कपटे दोष पोताना गोपव्यां, जेहथी ज्ञान पूजा लही अवज्ञा तस करी, ऋद्धिवंत मदवंतशुं प्रवचन उच्चरी०.॥५।। सामा वेर उदेयाँ विश्वास घातीयां, मित्रादिकनी स्त्रीशु कामे व्यापीयां; जेणे धनाढय कर्यो तेहy पण धन इहे, अणदेखंतो देख, पेख्युं मुख इम कहे०. ॥६।। संयत थई करी पंच विषय सुख पोसणा, बहु श्रुत तप विण कीधी तेहनी घोषणा; ब्रह्मचारी विना बिरुद वहयो.. ब्रह्मचारीनो, कुमर अवस्थातित, कहयो कुमर पणो०. ॥७॥ अग्नि दीपावी गाम नगरादिक बाळीयां, पोते आचरी पाप, बीजा शिर ढाळियां, गाम नगरना नायकनो वध इच्छीयो, अति संकलेशे आतमतत्त्व न प्रीछीयो. ॥८॥ त्रीश बोल अम सेवी महा मोहे रच्यो, शुद्ध दशा निज हारी परभावे मच्यो; क्षमा विजय जिन राज भक्ति जो चित्त धरी, ज्ञान चरण निज फरसित, उत्तम पद वरी. ||६||
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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