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________________ 222 (19) श्री आदिनाथ जिन स्तवन ऋषभदेव ! हितकारी जगतगुरु ! ऋषभदेव! हितकारी; प्रथम तीर्थंकर प्रथम नरेसर, प्रथम यति व्रतधारी ज०. १ वरसीदान देई तुम जगमें, इलति इति नीवारी; तैसी काही करत नाही करुना, साहिब बेर हमारी. ज०. २ मांगत नही हम हाथी घोरे, धन कन कंचन नारी; दीओ मोही चरन कमलकी सेवा, याही लागत मोहिप्यारी. ज०. ३ भवलीलावासित सुर डारे. तुम पर सबही उवारी; में मेरो मन निश्चल कीनो, तुम आणा शिर धारी ज०. ४ असो साहिब नही कोउ जगमें, यासुं होय दिलधारी; दिल हि दलाल प्रेम के बीचं, तिहां हठ खेंचे गमारी. ज०. ५ तुम हो साहिब में हुं बंदा, या मत दीयो वीसारी, श्री नयविजय विबुध सेवक के, तुम हो परम उपगारी. ज०.६ (20) श्री आदिनाथ जिन स्तवन ज्ञानरयण रयणायरू रे, स्वामी श्री ऋषभ जिणंद; उपगारी अरिहा प्रभु रे, लोक लोकोत्तरानंद रे; भवियाभावे भजो भगवंत, महिमा अतुल अनंत रे. भ० १ तिग तिग आकर सागरू रे, कोडाकोडी अढार; जुगला धर्म निवारीयो रे, धर्म प्रवर्तनहार रे. भ० २ ज्ञानातिशये भव्यना रे, संशय छेदनहार, देव नरा तिरि समजीया रे, वचनातिशय विचार रे. भ० ३ चार धने मधवा स्तवे रे, पूजातिशय महंत; पंच धने योजन टले रे, कष्ट ओ तुर्य प्रसंत रे. भ० ४ योग क्षेमंकर जिनवर रे, उपशम गंगा निर; प्रीति भक्तिपणे करी रे, नित्य नमे शुभवीर रे. भ० ५ (21) श्री आदिनाथ जिन स्तवन श्री आदिजिणंदनां प्रणमुं पाय, प्रभु दरशने आनंद अंग न माय, अत्यंत सुंदर शांतरसमां, झीलती प्रभु मुरती, अवलोकतां हर्षित थयुं, चित्त प्रमोद भावने पुरती, आजे शुभदिन उग्यो माहरो राय, श्री० १ राची माची प्रमादमां ने, कर्म बांध्या में बहु, मिथ्यात्व अविरति कषाय योगे, आप जाणो ते सहु, आव्यो माफी लेवा हवे करजो सहाय;.....श्री० २ अनादि-काळ भवभ्रमण करतो, योनि लाख चोराशीमां,। जन्म जरा मरणे करी, दुःख पाम्यो तेमां
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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