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________________ नवमोऽध्यायः ८७ आसन-बैठने का आस्तरण, शयन-खाट, यान-सवारी घोड़ा, वहल, पीनस, मोटर आदि मार्ग में उलटी पड़ी हुई देखे अथवा अन्य कोई अप्रशस्त वस्तु देखे तो उसे देख कर लौट कर आजाय, रोगी के यहाँ नहीं जाय ॥ ७ ॥ आतुरस्य गृहं गच्छन् मार्गे पश्येदमङ्गलम् । तदा मार्गाद् निवर्तेत स्वयशोरक्षया भिषक् ॥ ८॥ सवैद्य आतुर बीमार के यहाँ जाता हुआ यदि मार्ग में कोई अमङ्गल कार्य को देखे तो अपने यश की रक्षा चाहने वाला वैद्य मार्ग से ही लौट जाय ॥८॥ यस्यातुरस्य भवने भिद्यन्ते वा पतन्ति वा। पात्राणि वैद्यसंप्राप्तौ शब्दं श्रुत्वैव तं त्यजेत् ॥९॥ वैद्य के पहुँचते ही जिस आतुर-बीमार के मकान में पात्र गिरते हैं, अथवा टूटते फूटते हैं तो शब्द को सुनकर वैद्य उसके यहाँ से तुरत लौट जाय ॥६॥ स्वकप्रवेशवेलायां मृद्वीकवृषसर्पिषाम् । पूर्णकुम्भज्वलनयोर्निर्गच्छेनिर्गतौ भिषक् ॥ १० ॥ वैद्य अपने प्रवेश समय में रोगी के घर से अंगूर बैल अथवा घृत तथा जलादि से भरा हुआ घड़ा यद्वा अग्नि को निकलते हुये देखे, तो उस रोगी को असाध्य समझ कर उसके घर को छोड़ दे । स्त्रीणां सुगसिनीनां च रत्नब्राह्मणयोरपि । देवताप्रतिमानां च निर्गच्छेनिर्गतौ भिषक ॥ ११ ॥ वैद्य रोगी के घर से सौभाग्यवती विवाहित स्त्रियों को तथा रत्नों को या ब्राह्मण को अथवा देवता प्रतिमा को निकलते हुये देखे तो रोगी को असाध्य समझ कर उसके यहाँ से निकल जाय ॥ ११ ॥
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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