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________________ ५८ रोगिमृत्युविज्ञाने जिसके नासिका अथवा नेत्रों से अविच्छिन्न जल बहता हो, वह अतीसारी-अतीसार रोग वाला अथवा ज्वरी-ज्वर रोग वाला किसी प्रकार भी नहीं जीयेगा, वह तीन-या पाँच दिनों में मर जायगा ॥१३॥ पाणिपादं तथा मन्ये ताल चैवातिशीतलम् । . आयुःक्षये तु जायन्ते क्रराणि मृदुलानि वा ॥ १४ ॥ हाथ पैर तथा ग्रीवा-कण्ठ के पश्चात् भाग की दोनों शिरा-नाड़ी और तालुप्रदेश मरण समय में अर्थात् मरण से कुछ पूर्व क्रमशः अत्यन्त शीतल-ठंढे हो जाते हैं और या तो अत्यन्त कठोर हो जायगे अथवा अत्यन्त मृदुल कोमल हो जायँगे ॥ १४ ॥ जानुना जानुसंघट्टः पदोरुद्यम्य पातनम् । वक्त्रस्य मुहुरायामो मुमूर्षु अवते त्वरा ॥ १५ ॥ जो अपनी जानु से जानु को घट्ट, अर्थात्-जंघा से जंघा को घिसे और बारंबार पैरों को उठाकर पटके और मुख को बारंबार फैलावे, उसे जल्दी मरने वाला, सन्निपाती उसी दिन मरने वाला समझे ॥१५॥ रुग्णोऽज्ञानेन काष्ठाद्यः लिखेद् भूमि शिरोरुहान् । नखैश्छिन्देनखान् दन्तैयः स दीर्घ न जीवति ॥१६॥ जो अत्यधिक रुग्ण अज्ञान से (ज्ञान पूर्वक न होकर) काष्ठादि से काष्ठ अँगुली अथवा तृणादिक से भूमि में अथवा अपने विस्तर या भित्ति में अथवा जो पास में देखे उस पर कुछ लिखे, अथवा अज्ञान पूर्वक नखों से बालों को काटे, अथवा दाँतों से नखों को काटे, वह दीर्घकाल तक नहीं जियेगा, किन्तु तीसरे दिन मर जायगा ॥ १६ ॥ दन्तान् खादति यो जाग्रत् अशान्त्याऽतिरुदन् हसन् । न च दुःखं विजानादि यः स मृत्युमुखं गतः ॥१७॥
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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