SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ चतुर्थोऽध्यायः कतमानि शरीराणि रोगयुक्तानि रोगिणाम् । दृष्ट्वा यानि भिषक कुर्यान्नैव तेषां चिकित्सनम् ॥ १ ॥ रोगियों के रोग युक्त कौन २ कितने प्रकार के शरीर हैं, जिन्हें देख कर वैद्य उन रोगियों की चिकित्सा नहीं करे ॥ १ ॥ कामलाक्ष्णो मुखं पूर्ण कपोलो मांसलावपि । गात्रमुष्णं जथोद्वेगो यस्य स्यात् परित्यजेत् ॥ २ ॥ जिसकी आंखें पीली हो जाती हैं और शरीर भी पीला होता है, उसे कामलाक्षि कहते हैं, तो जिस कामलाक्षि रोगी का मुख भर जाय, सर्वतोभाव से भरा २ देख पड़े और कपोल अत्यन्त मांसलमांस युक्त मोटे २ हो जायँ, शरीर उष्ण ज्वराक्रान्त के समान हो और सदा उद्वेग घबड़ाहट हो उसे मरणासन्न समझ कर छोड़ दे, उसकी चिकित्सा न करे ॥२॥ शयनादुत्थितो वाढं मूर्छा याति मुहुर्मुहुः । सप्ताहात्परतो नैनं जीवन्तं परिभावयेत् ॥ ३ ॥ शयन-खट्वादि से उठा हुआ बारंबार अत्यधिक मूर्छा को जो प्राप्त होता हो, उसे सात दिन से अधिक जीवित न समझे । अर्थात् सात दिनों के अन्दर वह मर जायगा ॥३॥ बलं यस्य क्षयं याति प्रतिश्यायो विवर्द्धते । तस्य नारीप्रसक्तस्य शोषो नाशाय कल्पते ॥४॥ जिसका बल बराबर क्रम से घटता जाता है, प्रतिश्याय-श्लेष्मा जुखाम बढ़ता जाता है, नारीप्रसक्त उस पुरुष के शोष-क्षय, शरीर का
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy