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________________ तृतीयोऽध्यायः . . ३३ नृत्यन्तं मत्तमाविध्य हठात्प्रेतो नयेत यम् । तमपस्माररोगेण मृत्युहरति सत्वरम् ॥ २०॥ स्वप्न में मत्त मतवारे और नाचते हुये जिसे प्रेत लपट कर जबरदस्ती कहीं ले जाय, उसे मृत्यु अपस्मार रोग से जल्दी ही मार देती है ॥ २० ॥ स्तब्धे स्वप्नेऽक्षिणी यस्य हनुमन्ये च दारुणे । हन्ति तं बहिरायामो गृहीत्वेत्यवगम्यताम् ॥ २१ ॥ जिसकी स्वप्न में आँखें स्तब्ध हो जायँ, अर्थात् पथरा सी जायँ, और ठुड्ढी-टोढी-की नसें अत्यन्त कठोर हो जायँ, उसे बाहरी सांसर्गिक अथवा लू या भूत प्रेतादि का आयाम-आवेश आकर जल्दी ही मार देगा, यह निश्चय समझो ॥ २१ ॥ अपूपान् शष्कुलीः स्वप्ने भुक्त्वा चेच्छर्दयेत्पुनः । ताडगेव ततो जाग्रद् नाशमाशु गमिष्यति ॥ २२ ॥ जो मनुष्य स्वप्न में मालपुआ पूड़ी खाकर वैसी ही जैसी खाई थी उसी प्रकार की कै कर देता है, तो फिर वह जाग कर जल्दी ही सप्ताह के मध्यमें ही मृत्यु को प्राप्त हो जायगा ॥ २२ ॥ इमांश्चाप्यपरान्स्वप्नान् दारुणान् यो विलोकयेत् । स व्याधितो मृति गच्छेत् यद्वा क्लेशान् बहूनपि ॥ २३ ॥ जो मनुष्य इन पूर्वोक्त स्वप्नों को अथवा इसी प्रकार के कठोर स्वप्नों को अर्थात् मकान का गिरना, किसी अन्य का भी पानी में डूबना, पानी भरते हुये रस्सी से टूट कर घड़े का गिरना आदि स्वप्न को देखता है तो वह मनुष्य या तो मृत्यु को प्राप्त होता है, अथवा मृत्यु सदृश परम कष्टों को प्राप्त होता है, वह रुग्ण हो अथवा स्वस्थ, स्वप्न का फल अवश्य मिलेगा। हम यह प्रथम कह आये हैं कि स्वप्न मृत्यु आदि का जनक नहीं है किन्तु सूचक मात्र है ॥ २३ ॥
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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