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________________ अथ तृतीयोऽध्यायः ज्ञानमिन्द्रियजं चित्तं सुखदुःखादिकान्यपि । स्वकात्मानं नयत्येतत् तेन भृत्यमदो मतम् ॥ १॥ चित्त-मन इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान को अर्थात् रूप रसादिकों को और सुख-दुःखों को अपनी आत्मा के पास पहुँचा देता है, इस कारण यह मन आत्मा का नौकर (भृत्य) है, क्योंकि प्रभु के सदृश अपनी आत्मा के पास नौकर के समान उक्त ज्ञान को और सुखदुःखादिकों पहुँचाता है। तात्पर्य यह है कि यदि मन इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध न करे, तो देखते हुये सुनते हुए भी ज्ञान नहीं होता है ॥१॥ शुद्धं मनो भृत्यभूतं वेत्ति जीवस्य निर्गतिम् । तामेव स्वप्नमाश्रित्य ब्रूते स्वस्थमपि स्फुटम् ॥ २॥ उत्तम नौकर के समान शुद्ध छल-प्रपञ्चादि रहित मन, शरीर से जीव के निकलने की गति आदि को जानता है । उसी गति का आश्रय लेकर मन, स्वस्थ किसी प्रकार का भी रोग जिसे नहीं है, ऐसे पुरुष को भी स्पष्ट 'तामेव' उसी जीव के निकलने का समय आदि को कह देता है । तात्पर्य यह है, कि कभी कभी किसी पुरुष को स्वप्न में ही मरणादि का ज्ञान दुःस्वप्नादि द्वारा हो जाता है ॥२॥ निद्रितेऽध मनो ब्रूते जायमानं शुभाशुभम् । तज्ज्ञात्वा नैव दुष्येत न च तुष्येत्कदाचन । ३॥ अर्ध-निद्रावस्था में स्थित मन होने वाले शुभाशुभ को कह देता है, उस होनहार अशुभ को जानकर अशुभ-बुरा-न माने, और अच्छे
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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