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________________ प्रथमोऽध्यायः कश्चिद् वर्णो नखे नेत्रे मुखे मूत्रपुरीषयोः । क्षीणसवेन्द्रियेष्वेव जायते ११ रोगहेतुतः ॥ २७ ॥ यदि नख, नेत्र, मुख और मूत्र -पुरीष में, विभिन्न वर्ण हो, क्षीणसत्त्व-इन्द्रियसामर्थ्यं जिसकी क्षीण हो गई हो ऐसे रोगी के नखादिकों में रोग के चिरस्थायी होने के कारण भिन्न प्रकार का वर्ण उत्पन्न हो जाता है ।। २७ ।। पाणिपादौष्ठनेत्रेषु ग्लानिं चापि विलोकयेत् । अरिष्टमिदमुत्पन्नं ज्ञात्वा मुञ्चेद् भिषग्वरः ॥ १८ ॥ और पाणि चरण ओष्ठ नेत्रों में स्पष्ट ग्लानि प्रतीत होने लगे तो उसे देखकर अरिष्ट उत्पन्न हो गया है यह जानकर उत्तम वैद्य उसे छोड़ दे ।। २८॥ यस्य शुक्लाऽतिविपुला दन्तात्पतति बालुका | दिवसैरेव द्वित्रैस्तु मृत्युस्तमनुयास्यति ॥ २९ ॥ जिसके दाँतों से शुक्ल अत्यन्त - बहुत बालुका पड़े वह दो तीन दिन मात्र जीवित रहता है ॥ २६ ॥ अव्यक्तो गद्गदक्षामो जिह्वाघूर्णनतोऽस्फुट: । स्वरो यस्य समुत्पन्नस्तद्दिनं न स जीवति ॥ ३० ॥ जिसका अव्यक्त-स्पष्ट नहीं, अथवा गद्गद, अथवा क्षाम- झीना नितान्त पतला, यद्वा जिह्वा के न घूमने से अप्रतीयमान शब्द हो जाय वह चौबीस घंटा में मर जायगा ।। ३० । सन्निपातज्वरे शब्द-मजावी सदृशं वदेत् । दिनमात्रप्रमाणेन जीवनं तस्य निर्दिशेत् ॥ ३१ ॥ संन्निपात ज्वर में जिसका शब्द बकरी भेड़ के सदृश हो जाय अर्थात् भेड़ बकरी के सदृश बोले, वह उस दिन से अधिक जीवित नहीं रहता है ।। ३१ ।
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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