SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रोगि-मृत्यु-विज्ञान लोकेश्वरं गुरुं नत्वा मातरं पितरं शिवम् । मृत्युदर्पणविज्ञानं क्रियते लोकभाषया ॥ मंगलाचरणम् यस्या दर्शनतो भृशं विजयते चिद्रूपता चेतने, स्वात्मानन्दसमुद्रलोललहरी संजायते सर्वदा । नित्या सर्वसरूपतामनुगता संसारसौख्यप्रदा ब्रह्माभेदवहा सती भगवतः सा भासते पत्प्रभा॥१॥ हिन्दी-यस्या इति । जिस भगवान् की पदप्रभा के दर्शन से मन में अत्यन्त प्रकाशमान, अपनी आत्मा में आनन्द-समुद्र की सदा लहरें उत्पन्न रहती हैं, नित्य एवं समस्त स्थावरजंगमात्मक वस्तुस्वरूप अर्थात् स्वात्मानन्दात्मक चित्स्वरूप ही समस्त वस्तुस्वरूप है, नित्य समस्त वस्तुओं की समानता को प्राप्त सांसारिक सुखों की देनेवाली सती सर्वदा प्रत्यक्ष स्वरूपतया भासमान ब्रह्म से अभिन्न अर्थात् ब्रह्मस्वरूप वह भगवान् के चरणों की प्रभा भासमान है ॥१॥ ___मेरे बनाये हुये कवितारहस्य में भगवान् की पद-प्रभा का पचीस श्लोकों में नवीन-नवीन प्रकार से वर्णन है, उसका प्रत्येक श्लोक प्रत्येक ग्रन्थ के मङ्गलाचरण में है, यह पन्द्रहवां ग्रन्थ है। अधीत्य वाग्भट भावप्रकाशं सुश्रुतक्रियाम् । .. चरकं चानुसृत्यैव मरण ज्ञानमुच्यते ॥ २ ॥
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy