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________________ जीवात्मा का क्रमिक विकास [८५ को भोगता हुआ कल्पांत में ब्रह्म में विलीन हो जाता है । इन दोनों का पुनर्जन्म नहीं होता। ब्रह्मलोक में जीवात्मा व परमात्मा की भिन्नता वनी रहती है। वहाँ वह अपने कारण शरीर से ही पहुंचता है। यह जीवात्मा की अन्तिम स्थिति है तथा ब्रह्म में लीन होना उसकी अन्तिम गति है। इसी को निर्वाण, मोक्ष, परमधाम, सायुज्य, मुक्ति आदि कहा जाता है। इस प्रकार यह शरीर एक घर है जिसके सातवें परकोटे में परमात्मा का निवास है । इस घर का मालिक वही परमात्मा है । अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक यह जीवात्मा इस स्थूल शरीर को हर जन्म में बदलती रहती है तथा नये जन्म से नये अनुभव लेकर क्रमिक विकास करती जाती है। शरीर स्थिर आत्मा उसी ब्रह्म का अंश है जो सूक्ष्म है । वह दिखाई नहीं देता है। स्थूल होने से शरीर ही दिखाई देता है जैसे परमाणु दिखाई नहीं देता, पदार्थ ही दिखाई देते जिस प्रकार स्थूल शरीर के सात आवरण हैं उसी प्रकार स्थूल जगत के भी सात आवरण हैं तथा प्रत्येक में प्रवेश के लिए भिन्न-भिन्न द्वार हैं । दो आवरणों के बीच में पूरे का पूरा लोक है जिसमें मृत्यु के बाद वे ही जीवात्माएँ प्रवेश करती हैं जिसकी वैसी ही आत्मिक उन्नति हुई है। आगे के द्वार उसके लिए बन्द रहते हैं । जीवन्मुक्त पुरुषों को भी इन्हीं लोकों में होकर जाना पड़ता है किन्तु वे इनमें रुकते नहीं। इन लोकों के अधिकारी देवता इन्हें आगे के लोकों में पहुंचा देते हैं।
SR No.032177
Book TitleMrutyu Aur Parlok Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Dashora
PublisherRandhir Book Sales
Publication Year1992
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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