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________________ जीवात्मा का स्वरूप . [३१ सभी व्यक्तियों की जीवात्माएँ भिन्न-भिन्न हैं, यही "मैं" का स्वरूप है। इस प्रकार यह जीवात्मा एक देशीय हो गया, वह शरीर का अधिष्ठाता है जबकि परमात्मा सर्वव्यापी है। जीवात्माएँ अनेक हैं किन्तु परमात्मा एक है। जीवात्मा अहंकार से ग्रस्त होने के कारण, राग, द्वेष, 'चासना, इच्छा, कर्म, पुरुषार्थ, सुख, दुःख जानना आदि गुणों वाली है। जबकि परमात्मा इन सबसे परे इनका साक्षी है। जीव व्याप्य है, ईश्वर व्यापक है। जीवात्मा आसक्ति के कारण भोग एवं उनके फलों का भोक्ता है, परमात्मा इनका साक्षी व दृष्टा मात्र है। परब्रह्म उपास्य है तथा जीवात्मा उपासक है। जीव अल्पज्ञ है, ब्रह्म सर्वज्ञ है। जीव ईश्वर के अधीन है, परमात्मा उसका शासक एवं स्वामी है, वह प्रकति का भी स्वामी है। ब्रह्म जानने योग्य है जिसके जानने से जीवात्मा को मुक्ति लाभ मिलता है, जबकि जीवात्मा जानने वाला है। ब्रह्म आनन्दमय है, जीवात्मा दुःखों से घिरा रहता है। देवता भी जीवात्मा ही हैं किन्तु मनुष्य से थोड़े ऊपर हैं। परमेश्वर कारण हैं, जीव उसका कार्य है किन्तु दोनों अनन्य होने से ही “अयमात्मा ब्रह्म" कहा जाता है। ___ "अयमात्मा ब्रह्म" का अर्थ है समाधि दशा में जब योगी को परमेश्वर प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि यह जो मेरे में व्यापक है, वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है। जिस प्रकार शरीर में जीवात्मा है उसी प्रकार जीवात्मा में परमेश्वर व्यापक है । परमेश्वर शरीर में जीव को प्रवेश करा कर जीव के भीतर स्वयं अनुप्रविष्ठ हो जाता है । वह परब्रह्म ही सबका अन्तरात्मा है, जीवात्मा सबका अन्तरात्मा नहीं है । परमात्मा ही सर्वश्रेष्ठ दृष्टा एवं सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता है, जीवात्मा दृष्टा होते
SR No.032177
Book TitleMrutyu Aur Parlok Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Dashora
PublisherRandhir Book Sales
Publication Year1992
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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