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________________ ३. जीवात्मा का स्वरूप (अ) जीवात्मा और परमात्मा में अभेद सम्बंध इस समस्त जड़ चेतनात्मक जगत् का एकमात्र कारण वह परब्रह्म है, अन्य सभी उसके कार्य हैं। उसकी शक्तियों का जब प्रकटीकरण होता है तो इस जड़ चेतनात्मक सृष्टि का विस्तार होता है। ब्रह्म की परा प्रकृति चेतन का स्वरूप ही यह जीवात्मा है तथा अपरा प्रकृति का स्वरूप यह समस्त जड़ समूदाय है। इस प्रकार यह जीवात्मा उस एक ही ईश्वर का अंश होने से उससे अभिन्न है। जीवात्मा की परमात्मा से अभिन्नता होते हुए भी वह प्रकृति के मन, बुद्धि, चित्त. अहंकार आदि के आवरणों के कारण उससे भिन्न भी हो गई है। उपासना की दृष्टि से इन दोनों की एकता स्थापित की जाती है किन्तु कारण कार्यभाव से, पिता-पुत्री की भाँति एवं दूध दही की भाँति ये दोनों अभिन्न होते हुए भी भिन्न हो गई है। दोनों के गुणों में भिन्नता आ गई है । जिस प्रकार दही, दूध का ही रूप है किन्तु वह स्वयं दूध कैसे हो सकता है । दही और दूध भिन्न भी नहीं है तथा भिन्न है भो। ऐसा ही ब्रह्म और जीवात्मा है। जिस प्रकार दही पुनः दूध नहीं हो सकता उसी प्रकार विकार को प्राप्त हुई जीवात्मा ( २६)
SR No.032177
Book TitleMrutyu Aur Parlok Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Dashora
PublisherRandhir Book Sales
Publication Year1992
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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