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________________ भये निंद्य कर्म करो हो, तोहू वांछित पूर्ण नहीं होय है पर दुःखसे मरण करो हो । कुटुम्वादिको छोड़ विदेशमें परिभ्रमण करो हो, निंद्य आचरण करोडो अर निंद्य कर्म करके हू अवश्य मरण करो हो । पर जो एक बार हू समता धारण कर, त्याग-व्रत सहित मरण करो तो फिर संसार-परि. भ्रमणका अभाव कर, अविनाशी सुख को प्राप्त हो जाउ। इसवास्ते ज्ञान सहित पंडितमरण करना उचित है ॥ जीणं देहादिकं सर्व नूतनं जायते यतः । स मत्यः किं न मोदाय सतां सातोत्थितिर्यथा ॥८॥ 8. Death with which all old, rottenAre being turned in quite freshness, Then, is death not to right menFor pleasure-bearings and happiness ? जिससे कि जीर्ण और' शीर्ण सभी, है नूतन हो जाया करता । वह मरण न क्या सातोदय-हित, सज्जन को हर्ष-हेतु होता ? ॥८॥ अर्थ-जिस मृत्युसे जीर्ण देहादिक सर्व छूट नवीन हो जाय सो मृत्यु सत्पुरुषनिके साताका उदय की ज्यों हर्ष के अर्थ नहीं होय कहा? अर्थात ज्ञानीके तो मृत्यु हर्ष के अर्थ ही है ॥ भावर्थ—यह मनुष्य को शरीर नित्यही समय समय जीर्ण होय है । देवों के देहकी ज्यों जरारहित नहीं है। दिन दिन बल घटे है, कांति, रूप मलीन होय है, स्पर्श कठोर होय है। समस्त नसोंके हाड़ोंके बंधान शिथिल होय हैं । चाम ढीली होय, मांसादिको छोड़ ज्वरली रूप होय है। नेत्रोंकी उज्वलता बिगड़े है । कर्णमें श्रवणकरनेकी शक्ति घटे है। हस्तपादादिक में असमर्थता दिन दिन बधे है । नमन बक्ति मंद होय है । (६)
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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