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________________ अर्थ - भो ज्ञानिन् कहिये हो ज्ञानि श्रात्मा तुमको वीतरागी, सम्यक् ज्ञानी उपदेश करे हैं, जो मृत्यु रूप महान् उत्सवको प्राप्त होते काहेको भय करो हो । यो देही कहिये श्रात्मा सो अपने स्वरूपमें तिष्टता अन्य हमें स्थिति रूप पुरकू जाय हैं । यामें भयका हेतू कहा है ॥ भावार्थ — जैसे कोऊ एक जीर्ण कुटीमें तें निकसि श्रन्य नवीन महन को प्राप्त होय सोतो बड़ा उत्सव' का अवसर है । तैसे यह आत्मा अपने स्वरूपमें तिष्ठता ही इस जीर्ण देहरूपी कुटी को छोड़ नवीन देहरूपी महलको प्राप्त होते महा उत्सवका अवसर हैं । इसमें कोई हानि नहीं जो भय किया जाय । अर जो अपने ज्ञायक स्वभावमें तिष्टते परसे ममत्व करके रहित परलोक जावोगे तो बड़ा श्रादर सहित दिव्य, धातु, उपधातु, रहित वैक्रियक देहमें देव होय अनेक महद्धिकनिमें पूज्य महान देव होवोगे । अर जो यहाँ भयादि कर अपना ज्ञान स्वभावको बिगाड़ परमें ममत्व धार मरोगे तो एकेंद्रियादि के देहमें अपना ज्ञानका नाश कर जड़ रूप होय तिष्ठोगे । अतः ऐसें मलीन क्लेश- सहित, देहको त्याग, क्लेक रहित उज्वल देहमें जाना तो बड़ा उत्सवका कारण है ॥ सुदत्तं प्राप्यते यस्मात् दृश्यते पूर्वसत्तमे । भुज्यते स्वर्भबं सौख्यं मृत्युभीति कुतः सतां ||४|| 4. With it Charity's reward is gained. This portrayed by old pious men, Heavenly pleasure can be attained Then why do fear O, holy men ? है मिलता इससे दिया दान फल पूर्व सुधी यह दिखलाते । हैं भोग भोगते स्वर्गों के फिर सुजन मृत्यु-भय क्यों खाते ? ॥४॥ ( ४ )
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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