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________________ मृत्यु की अोर..... मानव जानता है कि इस असार संसार में व्याधि-वेदना प्रचुर मात्रा में है ; तदपि वह अपनी इस जानकारी को मात्र सैद्धान्तिक क्षेत्र तक ही सीमित रखता है। व्यवहार में तो वह अपनी दृष्टि शरीर के अस्तित्व से आगे नहीं बढ़ा पाता। वे भाग्यशाली अत्यल्प संख्या में होते हैं जिन्हें आत्मा के अस्तित्व की सघन अनुभूति होती है । प्रात्मानुभूति का अर्थ ही है- शरीर के लगाव में कमी लाना, शरीर को मात्र एक ऐसा वाहन मानना जिस पर बैठ कर लक्ष्य प्राप्ति की लम्बी यात्रा की जा सकती है । ऐसी दशा में शरीर की इतनी ही उपयोगिता समझ में आती है जितनी एक माली की उद्यान के लिए और एक पुजारी की देवालय के लिए होती है। माली का दूसरे उद्यान और पुजारी का दूसरे देवालय में स्थानान्तरण कर दिया जाए तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती किन्तु आज का मानव अपनी काया के स्वास्थ्य, सौन्दर्य और अलंकरण की चिन्ता में जीवन-पर्यन्त अहोरात्र निमग्न रहता है और सांसारिक सुख-सुविधाओं में लिपट कर भूल जाता है - कौन कहे सब छोड़ चलेगा, मौत थाम लेगी जब कर दो, जीवन में जो लिया मरण में, ले चलना होगा उन सबको। मृत्यु ! सामान्य रूप से एक ऐसा शब्द है जिसके नामोच्चार को हम अशुभ का पर्याय मानते हैं। लगता है, कहीं कुछ उजड़ गया है; बिखर गया है; गरम-गरम साँसों और आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ता है। रोना-पीटना, चीखना-चिल्लाना मृत्यु को दर्दनाक, कष्टप्रद और भयानक
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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