SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ :: परमसखा मृत्यु घटनाओं के पीछे मेरे सगे-सम्बन्धी, मेरे शिक्षक, मेरे साथी तथा मेरा समाज-इन सबका पुरुषार्थ होता है। इससे भिन्न कोई दैव नहीं है। (तमाम पुरुषार्थ के जोड़ को दैव कहें तो उसमें भाषा की सुविधा है। लेकिन उसमें से विचारों की गड़बड़ी पैदा होती है।) ___ इस तरह विचार करते हुए कहना पड़ता है कि हमारा जन्म केवल देवाधीन नहीं है । जीवन को तो दैवाधीन कह ही नहीं सकते । जीवन का अमुक भाग हमारे अपने हाथ में नहीं होता, इसलिए उसे पूरा दैवाधीन कहने जायं तो वह युक्तियुक्त नहीं है। हरएक व्यक्ति प्रोषत् (अांशिक रूप में) स्वतन्त्र होता है, लेकिन सब व्यक्तियों के पुरुषार्थ से ही जीवन बनता है। (हमारे पूर्वजों ने दैव का बाकायदा पृथक्करण करके उसको नाम दिया : अदृष्ट, यानी जिसको हम देख नहीं सकते, जिसका हिसाब हमारे पास नहीं है, ऐसा अनेकों का पुरुषार्थ ।) ____तब मरण के लिए ही हम यह क्यों मानें कि मरण को घड़ी और मरण का प्रकार सब हमारे जन्म से पहले ही अथवा जन्म के साथ ही निश्चित हुए हैं और वे अपरिवर्तनीय हैं ? महात्माजी मानते थे और असंख्य लोग मानते हैं कि मनुष्य का मरण प्रथम से निश्चित है। कोई भी उसे टाल या परिवर्तित नहीं कर सकता । इस तरह के विचार से मनुष्य को बल मिलता होगा, मनुष्य निश्चिन्त होता होगा। मैं जानता हूं कि बहुत से पुरुषार्थी मनुष्य दैववादी होते हैं, फिर भी अपने पूरे जीवन में, चिंतन में, इस निर्णय पर नहीं आ सका हूं कि मृत्यु की घड़ी पहले से निश्चित होती है, दैव अथवा देव प्रथम से निश्चित करके बैठे होते हैं। ____ मैं तो प्रथम से ही मानता आया हूं कि जिस तरह विरासत में रोग मिला हो तो भी उसे मैं अपने पुरुषार्थ से मिटा सकता हूं,
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy