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________________ ६० : परमसखा मृत्यु ६ / आत्म-रक्षा के लिए मरण शायद खलील जिब्रान का यह वचन है- “एक आदमी ने आत्मरक्षा के हेतु खुदकुशी की, अात्महत्या की।" वचन सुनते ही विचित्र-सा लगता है। अपने शरीर पर अत्याचार न हो, इस उद्देश्य से राजपूत और अन्य कन्याओं ने कई दफे जौहर किया है और सिद्ध किया है कि आत्मरक्षा प्राणरक्षा से भी श्रेष्ठ है। विक्टर ह्य गो के विशालकाय उपन्यास में क्षमावृत्ति का प्रतिनिधि है रोशनदान का दान करनेवाला बिशप और उसका शिष्य है वह चोर, जो सारी कथा का नायक है। इसके विरुद्ध न्याय को ही सार्वभौम जीवन-सिद्धान्त मानने वाले और सजा तथा बदले की उपासना करनेवाले पक्ष का प्रतिनिधि है पुलिस-विभाग का अधिपति । उस कथा में ऐसा प्रसंग आता है कि पुलिस थाने के अधिपति को न्याय का पक्ष छोड़कर उदारता और क्षमा का पक्ष मान्य किये बिना चारा ही नहीं। उस निष्ठावान हाकिम ने सोचा-'श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः' । और 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' कह करके उसने आत्महत्या कर ली। यहाँ भी हम कह सकते हैं कि प्राणों का त्याग करके उसने आत्मरक्षा की। जब गीता कहती है...'संभावितस्य चाकोतिः मरणाद् अतिरिच्यते'-तब भी आत्मरक्षा के लिए मरण को स्वीकार करने की ही बात सूचित होती है। ____ जब मनुष्य देखता है कि विशिष्ट परिस्थिति में जीना है तो हीन स्थिति और हीन विचार या सिद्धान्त मान्य रखना जरूरी है, तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं, मर कर ही आत्म
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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