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________________ मृत्यु का तपण : १ :: २७ क्या हम यह कहें कि “जहां अंधेरा नहीं है, वहां प्रकाश है। अथवा जहां मरण नहीं, वहां जीवन है ?" सच देखा जाय तो मरण का जीवन पर कुछ भी असर नहीं होता। जीवन के लिए मरण की उतनी ही कीमत है, जितनी देखती हुई आंखों के लिए पलक मारने की । मरण सचमुच जीवन में न तो कोई बाधा डाल सकता है, न उसको घटा या बढ़ा सकता है । जीवन तो निरंतर जारी ही है । अनेक मृत्यु आ जायं, तो भी जीवन का प्रवाह नाटक के जैसा चालू ही है। समय-समय पर मृत्यु की यवनिका गिरती है, यह इष्ट ही है, वरना नाटक भाररूप हो जाता। मरण अवश्यभावी है, इसमें तो संदेह नहीं है। किन्तु "मरण की उपयोगिता क्या है ? अगर वह उपयोगी है, तो ऋतुचक्र के समान वह निश्चित समय पर क्यों नहीं आता ?" __मरण की उपयोगिता वही है जो गणित में स्लेट बदलने की होती है। गणित का सवाल करते-करते जब एक स्लेट भर जाती है, तब आगे के लिए जितने आंकड़े काम के हों, उतने नई स्लेट पर लिख लिये जाते हैं और बाकी का सारा विस्तार मिटा दिया जाता है। अगर हम ऐसा न करें तो, स्लेट फिर से काम नहीं आयेगी और गणित भी आगे नहीं बढ़ेगा। एक जीवन में हम जो कुछ कमाते हैं, वह सब हमें वहीं-का-वहीं छोड़ देना है। लेकिन हम जो कुछ प्रांतरिक लाभ पाते हैं, उसे लेकर आगे बढ़ते हैं। 'परस्मैपदी' लाभ इस आयु के लिए है। 'आत्मनेपदी' लाभ जन्म-जन्मांतर के काम आते हैं। 'परस्मैपदी' लाभों का बोझ अगर बढ़ता चला जाय तो आदमी को देखते-देखते बुढ़ापा ग्रस लेगा और नये-नये अनुभव लेने की उसकी क्षमता ही नष्ट हो जायगी। ऐसे महान अभिशाप से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है मरण । -
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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