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________________ स्वर्ग क्या है ? :: ११७ कता है, उतनी ही मौत भी आवश्यक है। शरीर के लिए नींद जितनी पौष्टिक होती है, प्राण के लिए मौत भी उतनी ही पौष्टिक है। थके-मांदे के लिए योग्य समय पर मौत का आना इष्ट ही है। जीवन जिस प्रकार एक क्षण न होते हुए एक मुद्दत है, दीर्घ कालावधि है, उसी प्रकार मौत भी एक क्षण न होकर सुदीर्घ कालावधि होना चाहिए। जाग्रतावस्था की थकान दूर करने के के लिए जिस प्रकार हमें नींद भर सोना चाहिए, उसी प्रकार बहुत जीने के बाद भरप्राण मरने का भी स्वागत करना चाहिए। नींद चलते समय जिस प्रकार अनुभव, कल्पना, वासना इनके योग से अच्छे-बुरे स्वप्न आते हैं, उसी प्रकार मरण-काल में जीव को अच्छे-बुरे स्वप्न आते हैं, उन्हीं को स्वर्ग और नरक कहा है। स्वप्न में जिस प्रकार स्वप्न सत्य होते हैं, उसी प्रकार स्वर्ग और नरक भी अपनी-अपनी जगह पर सत्य-रूप होते हैं। अच्छे-बुरे स्वप्नों को भंग करके हम जाग्रत होते हैं और नींद के पहले की जाग्रति से कड़ी जोड़कर पुरुषार्थ को आगे चलाते हैं। उसी प्रकार मरण-काल में अनुभव किया हुआ स्वर्ग या नरक पूर्ण करने के बाद मनुष्य को पुनर्जन्म मिलता है और पूर्व-कर्म के अनुसार अच्छा-बुरा जन्म मिलने के बाद उसका पुरुषार्थ पिछले अंक से आगे चलता है। स्वर्ग और नरक पुरुषार्थ को कर्मभूमि नहीं हैं, बल्कि वासनाओं की भोगभूमि है । इसलिए वहां पुण्य या पाप के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव होते हुए भी उनका (पुण्य और पाप का) क्षय नहीं होता। पुण्य-पाप का हिसाब पुनर्जन्म के समय हाथ में लेकर आगे चलना होता है। दिसम्बर, १९५३
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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