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________________ मरण का सच्चा स्वरूप :: १०५ पुराणों में पढ़ने को मिलते हैं और उसका अर्थ करने की अर्थविहीन कोशिश स्वप्नाध्याय में हमने पढ़ी थी। आजकल फ्रायड और यंग जैसे मानस-विज्ञानवेत्ता मनीषी स्वप्न का व्यवस्थित अर्थ करने की कोशिश कर रहे हैं। उससे इस वक्त हमें कोई मतलब नहीं है। हमारा सवाल इतना ही है कि नींद के दरम्यान जैसे एक जागृति-बाह्य स्वप्नसृष्टि का अनुभव होता है वैसे ही मृत्यु काल में कोई जीवन-बाह्य मृत्युसृष्टि होती है या नहीं ? पुराणों ने ऐसी सृष्टि की कल्पना की है, लेकिन उससे कोई खास मदद नहीं मिलती। जो हो, परिचित जीवन और अज्ञात अपरिचित मृत्यु मिल कर जो जीवन होता है, उसी का विचार हमें करना है। ऐसा लगता है कि जन्म-मृत्यु को मिलाकर जो विशाल जीवन बनता है वह एक विशाल गहरा सागर है । संकुचित अर्थ में जिसे हम जीवन कहते हैं, वह तो उस विराट सागर का केवल पृष्ठभाग ही है । जीवन की गहराई तो मृत्यु में ही देखनी पड़ेगी। इस क्षण यह केवल कल्पना ही है। किन्तु मृत्यु को अगर हम एक क्षण मानें और मरण को दो जीवनों के बीच की अज्ञात अवधि मानें, तो उस कालखण्ड की जानकारी किसी-न-किसी दिन होनी ही चाहिए। अगर ऐसी जानकारी मिली तो पूर्वजन्म और पूर्वजन्म का सवाल भी हल हो जायगा और जन्मान्तर तथा मोक्ष का सिद्धान्त भी स्पष्ट होगा। ___जो हो, इस वक्त तो जीवन और मृत्यु को मिलाकर जो विशाल जीवन बनता है, उसी का चिन्तन करना चाहते हैं। ____जो जीवन हम जीते हैं, उसके भी दो विभाग करना जरूरी है। इसके लिए हम एक वृक्ष की मिसाल लें। बीज में से जब अंकुर निकलता है तब से वृक्ष अपनी पूरी ऊंचाई तक पहुंचता है तबतक उसके कलेवर में वृद्धि होती
SR No.032167
Book TitleParam Sakha Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaka Kalelkar
PublisherSasta Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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