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________________ में ही जागृत न होता । जिस देश से वह अन्य देश को गया था, ऐसा वह मानता है । उस देह के पास रहने वाले उसे शयन के देश ही पाते हैं । दूसरे, यह जैसे अन्य देश में स्वप्न में देखता है, वैसे वे होते भी नहीं । यदि वह दौड़कर जाता और देखता तो उसको वह जैसा था, वैसा ही जानने में था । अतिरिक्त इसके ' स यत्रैतस्वप्न्त्य या चरति (जब वह स्वप्न में घूमता है) इस प्रकार आरंभ कर 'स्व शरीरे यथा कामं परिवर्तते' (बृ० २/१/१८ ) ( वह अपने शरीर में चाहे जैसा घूमता है) इस प्रकार श्रुत भी शरीर के भीतर ही स्वप्न होता है, ऐसा कहती है । इसलिए श्रुति संगति में विरोध प्राप्त होने से शरीर के बाहर स्वप्न होता है। ऐसा कहने वाली श्रुति को गौण मानकर 'देह के बाहर हो' इस प्रकार ऐसी उसकी व्याख्या करनी चाहिए। जो शरीर में रहते हुए कुछ भी कार्य नहीं करता, वह शरीर के बाहर होने के समान है तथा वैसा होने से उसकी (भिन्न प्रकार की) स्थिति, गमन और अनुभव भी सब मिथ्या ही है, ऐसा जानना चाहिए । स्वप्न में काल का भी विरोध होता है। रात का सोया भारतवर्ष में उस समय दिन है, ऐसा मानता है । मुहूर्त भर के स्वप्न में अनेक वर्ष बिताता है । स्वप्न तथा क्रिया के लिए आवश्यक इन्द्रियां भी विद्यमान नहीं होतीं । इन्द्रियां जीव ने अपने भीतर खींच ली हुई होने से वहां पर रथादि का ग्रहण करने के लिए चक्षु आदि इन्द्रियां वर्तमान नहीं होतीं। वैसे ही रथादि निर्माण करने के लिए इसके पास क्षणभर में इतना सामर्थ्य तथा काष्ठ आदि कहां से आये ? ये स्वप्न में देखे हुए स्थादि का जागने पर बोध हो जाता है । इतना ही नहीं, स्वप्न में भी इनका सहज में बोध हो सकता है । ...... सूचकश्च हि श्रुतेशन्वक्षते च तद्विद्वः ||८|| च और (स्वप्न नितांत मिथ्या नहीं होता) हि क्योंकि 8
SR No.032164
Book TitleSwapna Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Shastri
PublisherSadhna Pocket Books
Publication Year1993
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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