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________________ ८४ ध्यानस्तव संवेग-प्रशमास्तिक्य-कारुण्यव्यक्तलक्षणम् । सरागं पटुभि यमुपेक्षालक्षणं परम् ॥प्र. श्रा. २.६६. प्रशमादथ संवेगात् कृपातोऽप्यास्तिकत्वतः । जीवस्य व्यक्तिमायाति तत् सरागस्य दर्शनम् ॥ ध्या. स्त. ८३. पुंसो विशुद्धिमानं तु वीतरागाश्रयं मतम् ॥ ८४ पूर्वार्ध . दोनों ग्रन्थों में धर्म, अधर्म और एक जीव के प्रदेशों की संख्या इस प्रकार निर्दिष्ट की गई है - धर्माधर्मकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशकाः । अनन्तानन्तमानास्ते पुद्गलानामुदाहृताः॥प्र. श्रा. ३-३२. धर्माधर्मकजीवानां संख्यातीतप्रदेशता । व्योम्नोऽनन्तप्रदेशत्वं पुद्गलानां त्रिधा तथा ॥ ध्या. स्त. ६७. दोनों ग्रन्थों में द्रव्यसंवर और भावसंवर का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है प्रास्त्रावस्य निरोधो यः संवरः स निगद्यते । भाव-द्रव्यविकल्पेन द्विविधः कृतसंवरैः ॥प्र. श्रा. ३.५९. प्रास्रवस्य निरोधो यो द्रव्य-भाबाभिधात्मकः । तपोगप्त्यादिभिः साध्यो नेकधा संवरो हि सः॥ ध्या. स्त ५३. अमितगति-श्रावकाचार के ३-३८, ३-५४, ३-६३ और १५-१७ इन श्लोकों का भी क्रम से ध्यानस्तव के ५२, ५५, ५४ और १३-१६ इन कोकों से मिलान किया जा सकता है। अमितगति-श्रावकाचार में जिन पदस्थ व पिण्डस्थ आदि ध्यानविशेषों का वर्णन किया गया है उनका वर्णन ध्यानस्तव में भी किया है। यथाध्यान प्रा. श्रा. ध्यानस्तव पदस्थ १५, ३१-४६ पिण्डस्थ १५, ५०-५३ २५-२८ रूपस्थ १५-५४ रूपातीत १५, ५५-५६ ३२-३६ दोनों में शब्दार्थ की समानताम. श्रा. १५-५० पू.-अनन्तदर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्येरलङ्कृतम् । ध्यास्तव २७ -विश्वशं विश्वदृश्वानं नित्यानन्तसुखं विभुम् । अनन्तवीर्यसंयुक्तं स्वदेहस्थमभेदतः ॥ प्र. श्रा. १५-५० उ.-प्रातिहार्याष्टकोपेतं; ध्या. श. २६-प्रातिहार्यसमन्वितम् । म. था. १५-५१ पू.-शुद्धस्फटिकसंकाशशरीरमुरुतेजसम् । ध्यानस्तव २५ पू.-स्वच्छस्फटिकसंकाशव्यक्तादित्यावितेजसम् । प्र. श्रा. १५-५२-विचित्रातिशयाघारं xxx (पू.)। ध्यानस्तव २६-सर्वातिशयसम्पूर्ण xxx (पू.) प्र. था. १५-५४-प्रतिमायां समारोप्य स्वरूपं परमेष्ठिनः। . ध्यायतः शुद्धचित्तस्य रूपस्थं ध्यानमिष्यते । ध्यानस्तव ३०-तव नामाक्षरं देव प्रतिबिम्बं च योगिनः । ध्यायतो भिन्नमीशेदं ध्यानं रूपस्थमीडितम् ॥ १६ ज्ञानार्णव-प्राचार्य शुभचन्द्र (वि. की ११वीं शती) विरचित ज्ञानार्णव यह एक ध्यानविषयक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह सम्भवतः ध्यानस्तवकार के समक्ष रहा है। ज्ञानार्णव में जहां ध्यान का २६ ३०.३१
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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