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________________ ध्यानस्तव इसके पूर्व ध्यानस्तव के ७०वें श्लोक में इन दोनों नयों के लक्षण में यह कहा जा चुका है कि जो यथावस्थित द्रव्य और पर्याय का निश्चय कराता है उसे निश्चयनय तथा इससे विपरीत को व्यवहार नय कहा जाता है। अगले श्लोक (७१) में चूंकि उन दोनों नयों का लक्षण प्रकारान्तर से पुनः कहा गया है, इसलिए उसकी सूचना करने के लिए यहां 'अथवा' पद का उपयोग किया गया है, जिसकी कि तत्त्वानुशासन में आवश्यकता नहीं रही। १३ कार्तिकेयानप्रेक्षा-ध्यानस्तव के अन्तर्गत १३वें श्लोक में 'उत्तमो वा तितिक्षादिर्वस्तुरूपस्तथापरः' यह निर्देश करते हुए उत्तम क्षमादिरूप दस धमों को व वस्तु के स्वरूप को धर्म कहा गया है। यह अभिप्राय कार्तिकेयानुप्रेक्षा की इस गाथा में निहित है धम्मो वत्थुसहावो खमाविभावो य वसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥४७८॥ १४ द्रव्यसंग्रह-जैसा कि ग्रन्थ के नाम से ही प्रगट है, मुनि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव (११वीं शती) विरचित द्रव्यसंग्रह में जीवादि छह द्रव्यों की संक्षेप से प्ररूपणा की गई है । उसमें समस्त गाथायें ५८ हैं। उनमें प्रारम्भ की २७ गाथाओं में उक्त छह द्रव्यों की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् ११ (२८-३८) गाथानों में जीव-अजीव आदि नौ पदार्थों की प्ररूपणा की गई है। अन्तिम मोक्ष पदार्थ का विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि व्यवहार से उस मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र हैं तथा निश्चय से इन तीनों स्वरूप निज प्रात्मा है। इस प्रकार प्रसंग पाकर यहां उक्त सम्यग्दर्शनादि तीन का भी विवेचन करते हुए (३६-४६) यह कहा गया है कि निश्चय और व्यवहार के भेद से दो भेद रूप उस मोक्षमार्ग को चूंकि मुनि जन ध्यान के प्राश्रय से ही प्राप्त करते हैं, अतएव प्रयत्नशील होकर उस ध्यान का अभ्यास करना योग्य है' (४७) । इस प्रसंग से यहां प्रागे ध्यान की भी प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत ध्यानस्तव में ध्यान की प्ररूपणा करते हुए आगे यह कहा गया है कि हे देव ! जो अन्तरात्मा प्रमाण, नय और निक्षेप के प्राश्रय से नो पदार्थों, सात तत्त्वों, छह द्रव्यों, पांच अस्तिकायों और शरीर व आत्मा के भेद को यथार्थरूप से जानता है वही पाप को देख सकता है-पाप का ध्यान करने में समर्थ होता है। इस प्रसंग से जो वहां उक्त पदार्थों आदि का निरूपण किया गया है वह पूर्वोक्त द्रव्यसंग्रह से काफी प्रभावित है। यथा १ द्रव्यसंग्रह में व्यवहार और निश्चय नय की अपेक्षा जीव के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि व्यवहार से जिसके इन्द्रिय, बल, आयु और मान-प्राण (श्वासोच्छ्वास) ये चार प्राण पाये जाते हैं वह जीव कहलाता है तथा निश्चय नय की अपेक्षा जिसके चेतना पायी जाती है उसे जीव कहा जाता है। ध्यानस्तव में जीव का लक्षण प्रथमतः पदार्थप्ररूपणा के प्रसंग में और तत्पश्चात् द्रव्यप्ररूपणा के प्रसंग में निर्दिष्ट किया गया है। पदार्थ के प्रकरण में जो उसका चेतना यह लक्षण निर्दिष्ट किया गया है वह द्रव्यसंग्रह के अनुसार निश्चय नयाश्रित लक्षण है तथा द्रव्य के प्रकरण में जो उसका 'प्राणधारण संयुक्त' यह लक्षण निर्दिष्ट किया गया है वह द्रव्यसंग्रह के अनुसार उसका व्यवहार नयाश्रित लक्षण हैं। १. तत्त्वानुशासन में भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है। दोनों की समानता दर्शनीय है स च मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोऽपि। तस्मादभ्यस्यन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपास्यालस्यम् ॥ तत्त्वानु. ३३. दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ॥ द्र. सं. ४७. २. द्रव्यसंग्रह ३. ३. ध्यानस्तव ४१. ४. ध्यानस्तव ५६
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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