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________________ प्रस्तावना ७७ सम्यग्दर्शनादि तीन को समुदित रूप में मोक्ष का कारण बतलाकर ग्रन्थकार ने स्तुतिविषयक अपनी प्रसमर्थता को व्यक्त करते हुए यह कहा है कि हे देव ! आप रुष्ट या संतुष्ट होकर यद्यपि किसी का कुछ भी नहीं करते हैं, फिर भी मनुष्य आपके विषय में एकाग्रचित्त होने से स्वयमेव उसका फल प्राप्त करता है। मैंने यह जो कुछ भी स्तुति के रूप में कहा है वह ध्यानविषयक भक्ति के वश होकर ही कहा है, न कि कवित्व के अभिमानवश । यदि मैं अल्पज्ञ होने से इसमें कुछ स्खलित हुया हूं तो विशिष्ट निर्मल बुद्धि के घारक विद्वान् उसे शुद्ध कर लें (६२-६८)। अन्त में ग्रन्थकर्ता भास्करनन्दी ने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए इतना मात्र कहा है कि शरीर की ओर से अत्यन्त निःस्पृह व दुश्चर तपश्चरण करने वाले एक सर्वसाधु हुए। उनके एक शिष्य श्रुतसमुद्र के पारगामी जिनचन्द्र हुए। उनके भास्करनन्दी नामक शिष्य ने आत्मचिन्तन के लिये ध्यान से समन्वित इस स्तवन को रचा है (६६-१००)। ध्यानस्तव पर पूर्व साहित्य का प्रभाव सर्वप्रथम यहां यह स्मरणीय है कि ध्यानस्तव के कर्ता भास्करनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र के ऊपर एक सुखबोधा नाम की सुबोध वृत्ति रची है। इस वृत्ति की प्राधार उक्त तत्त्वार्थसूत्र के ऊपर पूर्व में रची गई सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि महत्त्वपूर्ण टीकायें रही हैं। प्रस्तुत ध्यानस्तव में ध्यान व उसके प्रसंग से जीवाजीवादि नौ पदार्थों, सात तत्त्वों, छह द्रव्यों, प्रमाण-नय-निक्षेपों और मोक्ष के मार्गभूत सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र का जो विवेचन किया गया है उसका प्राधार तत्त्वार्थसूत्र की उक्त टीकायें रही हैं। उनके अतिरिक्त पूर्वनिर्दिष्ट (पृ.७५) अन्य भी जो ग्रन्थ उसके आधारभूत रहे हैं उनका प्रस्तुत ध्यानस्तव से कहां कितना सम्बन्ध रहा है, इसका यहां विचार किया जाता है। १ प्रवचनसार--ध्यानस्तव के अन्तर्गत १४वें श्लोक में मोह-क्षोभ से रहित आत्मा के भाव को धर्म कहा गया है । इसका आधार प्रवचनसार की यह गाथा रही है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो॥ १-७. २ पंचास्तिकाय-ध्यानस्तव (४०) में जीवाजीवादि नौ पदार्थों का जिस क्रम से निर्देश किया गया है वह उनका क्रम पंचास्तिकाय में उपलब्ध होता है। यथा जीवाजीबा भावा पुण्णं पावं च पासवं तेसि । संवर णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥१०८।। ३ समयसार--यही उनका क्रम समयसार (गा. १५) में भी देखा जाता है। यह उनका क्रम तत्त्वार्थसूत्र (१-४) में निर्दिष्ट उनके क्रम से भिन्न है। ४ तत्त्वार्थसूत्र-ध्यानस्तव (८-२१) में जो ध्यान के स्वरूप व उसके भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है वह तत्त्वार्थसूत्र के अन्तर्गत ध्यान के प्रकरण (६, २७-४४) से प्रभावित है। ५ रत्नकरण्डक-ध्यानस्तव के श्लोक १४ में जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहा गया है वह रत्नकरण्डक का अनुसरण करता है। रत्नकरण्डक में उपयुक्त 'सददृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः' इस श्लोक (३) के अन्तर्गत 'सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि' पद को ध्यानस्तव में जैसा का तैसा ले लिया गया है। ६ स्वयम्भूस्तोत्र-ध्यानस्तव के ६३वें श्लोक में यह कहा गया है कि हे देव ! आप अनन्त गुणों से युक्त हैं, फिर भला मैं आपकी स्तुति ---उन गुणों का कीर्तन-कैसे कर सकता हूं? फिर भी मैंने १. तत्त्वानुशासन (५१) में रत्नकरण्डक के उक्त श्लोक के इस पूर्वाध को अविकल रूप में ग्रहण कर लिया गया है।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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