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________________ ध्यानशतक और द्वीप-समद्रादिकों को चिन्तनीन (ध्येय) बतलाया है। साथ ही उपयोगादिस्वरूप जीव व उसके कर्मोदयजनित संसार-समुद्र के भयावह स्वरूप को दिखलाते हुए उससे पार होने के उपायविषयक विचार करने की भी प्रेरणा की गई है। - इसी प्रकार प्रादिपुराण में भी संस्थानविचय धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए लोक के प्राकार जीवादि तत्त्वों, द्वीप-समुद्रों एवं वातवलयादि को चिन्तनीय कहा गया है। साथ ही वहां यह भी कहा गया है कि जीवभेदों व उनके गुणों का विचार करते हुए उनका जो अपने ही पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से संसार-समुद्र में परिभ्रमण हो रहा है उसका तथा उससे पार होने के उपाय का भी विचार करना चाहिए । तुलना के रूप में इस प्रसंग की निम्न दो गाथायें और श्लोक द्रष्टव्य हैं खिइ-वलय दीव-सागर-नरय-विमाण-भवणाइसंठाणं । वोमाइपइट्ठाणं निययं लोगट्टिइविहाणं ॥ ध्या. श. ५४. द्वीपाब्धि-वलयानबीन सरितश्च सरांसि च । विमान-भवन-ध्यन्तरावास-नरकक्षितिः ॥ प्रा. पु. २१-१४६. XXX कि बहणा सव्वं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं । सम्वनयसमूहमयं झाएज्जा समयसम्भावं ॥ ध्या. श. ६२. किमत्र बहुनोक्तेन सर्वोऽप्यागमविस्तरः। नय भङ्गशताकीर्णो ध्येयोऽध्यात्मविशद्धये ॥ प्रा. पृ. २१-५४. मागे आदिपुराण में उक्त धर्मध्यान के काल व स्वामी का निर्देश करते हुए कहा गया है कि वह अन्तर्मुहुर्त काल तक रहता है तथा अप्रमत्त दशा का पालम्बन लेकर अप्रमत्तों में परम प्रकर्ष को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उसका अवस्थान प्रागमपरम्परा के अनुसार सम्यग्दष्टियों और शेष संयतासंयतों व प्रमत्तसंयतों में भी जानना चाहिए। आगे लेश्या का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह प्रकृष्ट शुद्धि को प्राप्त तीन लेश्याओं से वृद्धिंगत होता है। तत्पश्चात् वहां धर्मध्यान में सम्भव क्षायोपशमिक भाव का निर्देश करते हुए उसके अभ्यन्तर व बाह्य चिह्नों (लिंगों) की सूचना की गई है। उसका फल पाप कर्मों की निर्जरा और पुण्योदय से प्राप्त होने वाला देवसुख बतलाया है। साथ ही वहां यह भी कहा गया है कि उसका साक्षात् फल स्वर्ग की प्राप्ति और पारम्परित मोक्ष की प्राप्ति है। इस ध्यान से च्युत होने पर मुनि को अनुप्रेक्षाओं के साथ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए, जिससे संसार का प्रभाव किया जा सके। ध्यानशतक में जिन भावनादि १२ अधिकारों के प्राश्रय से धर्मध्यान की प्ररूपणा की गई है उनमें उसके स्वामी, लेश्या और फल आदि का भी क्रमानुसार विवेचन किया गया है। स्वामी के विषय में प्रकृत दोनों ग्रन्थों में कुछ मतभेद रहा है । यथा ध्यानशतक में प्रकृत धर्मध्यान के ध्याता का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि सब प्रमादों से रहित मुनि तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह उसके ध्याता होते हैं। उपशान्तमोह और क्षीणमोह का अर्थ हरिभद्र सूरि ने उसकी टीका में क्रमशः उपशामक निर्ग्रन्थ और क्षपक निर्ग्रन्थ किया है। अभिप्राय उसका यह प्रतीत होता है कि उक्त धर्मध्यान सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है। १. ध्या श. ५२-६०. २. प्रा. पु. २१, १४८-५४. ३. प्रा. पु. २१, १५५-५६. ४. प्रा. पु. २१, १५७-६४. ५. ध्या. श. ६३. ६. क्षीणमोहाः क्षपकनिर्ग्रन्थाः, उपशान्तमोहाः उपशामकनिर्ग्रन्थाः ।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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