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________________ प्रस्तावना ५५ स्थानांग में परिजुषित (अनुभूत) कामभोगों से संयुक्त होने पर प्राणी को जो उनके प्रवियोगविषयक चिन्ता होती है उसे चतुर्थ प्रार्तध्यान कहा गया है। परन्तु ध्यानशतक में इन्द्र व चक्रवर्ती आदि की गुण-ऋद्धियों की प्रार्थनारूप निदान को चौथा आर्तध्यान कहा गया है। इस परिवर्तन का कारण यह प्रतीत होता है कि स्थानांगगत उक्त चतुर्थ प्रार्तध्यान का लक्षण द्वितीय आर्तध्यान से भिन्न नहीं दिखता। स्थानांग के टीकाकार अभयदेव सूरि ने अपनी टीका में इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि द्वितीय पार्तध्यान अभीष्ट धनादि से जहां सम्बद्ध है वहां चतुर्थ प्रार्तध्यान उस धनादि से प्राप्त होने वाले शब्दादि भोगों से सम्बद्ध है, इस प्रकार उन दोनों में यह भेद समझना चाहिए। शाश्त्रान्तर में द्वितीय और चतुर्थ के एक होने से-उनमें भेद न रहने से उन्हें तीसरा प्रार्तध्यान माना गया है तथा चतुर्थ प्रार्तध्यान निदान को स्वीकार किया गया है। यह कहते हुए उन्होंने आगे ध्यानशतक की प्रार्तध्यान से सम्बद्ध चारों गाथाओं को (६-६) को भी उद्धृत कर दिया है । इस प्रकार शास्त्रान्तर–से उनका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र और ध्यानशतक का ही रहा दिखता है। स्थानांग में जो प्रकृत आर्तध्यान के चार लक्षण (लिंग) निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें क्रन्दनता, शोचनता और परिदेवनता इन तीन को ध्यानशतक में प्रायः उसी रूप में ले लिया गया है, किन्तु 'तेपनता' के स्थान में वहां ताडन आदि को ग्रहण किया गया है। अभयदेव सूरि ने 'तिपि' धातु को क्षरणार्थक मानकर तेपनता का अर्थ अश्रुविमोचन किया है। रौद्रध्यान स्थानांग में रौद्रध्यान का निरूपण करते हुए उसके चार भेद गिनाये गये हैं-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी । ध्यानशतक में उनका इस प्रकार से नामोल्लेख तो नहीं किया गया, किन्तु वहां जो उनका स्वरूप कहा गया है उससे इन नामों का बोध हो जाता है। स्थानांग में रौद्रध्यान के ये चार लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं-पोसन्नदोष, बहदोष, प्रज्ञानदोष, और अामरणान्तदोष" । ध्यानशतक में वे इस प्रकार उपलब्ध होते हैं-उस्सण्ण (उत्सन्न) दोष, बहुलदोष, नानाविधदोष और पामरणदोष" । इनमें प्रोसण्ण और उस्सण्ण, बहु और वहुल तथा आमरणान्त और अामरण इनमें अर्थतः कोई भेद नहीं है। केवल अण्णाण और णाणाविह (नानाविध) में कुछ भेद १. परिजुसितकामभोगसंपयोगसंपउत्ते तस्स अविप्पप्रोगसतिसमण्णागते यावि भवइ ४ । स्थाना. पृ. १८८. २. ध्या. श. ६. ३: द्वितीयं वल्लभधनादिविषयम्, चतुर्थं तत्संपाद्यशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः । शास्त्रान्तरे तु द्वितीय-चतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थं तु तत्र निदानमुक्तम् । उक्तं च-(ध्या. श. ६-६)। स्थाना. टीका २४७, पृ. १८६. ४. निदानं चं । त. सू. ६-३३. ५. अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० (पण्णत्ता) तं० (तं जहा)-कंदणता सोचणता तिप्पणता परिदेवणता । स्थाना. पृ. १८६. ६. घ्या. श. १५. ७. तेपनता-तिपेः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनम् । स्थाना. टीका. ८. रोहे झाणे चउविहे पं० तं०-हिंसाणुबन्धि मोसाणुबंधि तेणाणुबंधि सारक्खणाणुबंधि । स्थाना. पृ. १८८. ९. ध्यानशतक १६-२२. १०. रुहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं--प्रोसण्णदोसे बहुदोसे अन्नाणदोसे आमरणदोसे । स्थाना. पृ. १८८. ११. ध्या. श. २६.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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