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प्रस्तावना
को स्पष्ट करते हए उसके स्वामियों का भी निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त वहां प्रार्तध्यान के समान रौद्रध्यान के भी फल व लेश्या आदि की चर्चा की गई है।
८ तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र द्वारा धर्मध्यान के चार भेदों का निर्देश मात्र करके उसके प्रकरण को समाप्त कर दिया गया है। पर ध्यानशतक में उसकी प्ररूपणा भावना, देश, काल, आसनविशेष, आलम्बन, क्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल इन बारह अधिकारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है। तत्त्वार्थसूत्रोक्त उसके चार भेदों की सूचना यहां ध्यातव्य अधिकार में करके उनके पृथक् पृथक् स्वरूप को भी प्रगट किया गया है।
९ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है तत्त्वार्थसूत्र में सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार धर्मध्यान के चार भेदों का निर्देश मात्र किया गया है, उसके स्वामियों का निर्देश वहां नहीं किया गया । पर उसकी टीका सर्वार्थसिद्धि में उसके स्वामियों का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इनके होता है। उक्त तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यभूत तत्त्वार्थवातिक में पृथक् से उसके स्वामियों का उल्लेख तो नहीं किया गया, किन्तु इस सम्बन्ध में जो वहां शंका-समाधान है उससे सिद्ध है कि वह, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि में निर्देश किया गया है तदनुसार, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों के होता है।
पर उक्त तत्त्वार्थसूत्र में ही तत्त्वार्थाधिगमसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उस धर्मध्यान के भी स्वामियों का उल्लेख किया गया है। वहां यह कहा गया है कि वह चार प्रकार का धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के साथ उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भी होता है। जैसा कि यहां उसके स्वामियों का निर्देश किया गया है, तदनुसार ही ध्यानशतक (६३) में भी यह कहा गया है कि धर्मध्यान के ध्याता सब प्रमादों से रहित मुनि जन, उपशान्तमोह और क्षीणमोह निर्दिष्ट किए गए हैं। इसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने उपशान्तमोह का अर्थ उपशामक निर्ग्रन्थ और क्षीणमोह का अर्थ क्षपक निर्ग्रन्थ प्रगट किया है।
१० तत्त्वार्थसूत्र में शुक्लध्यान की प्ररूपणा करते हए उसके चार भेदों में प्रथम दो का सद्भाव श्रुतकेवली के और अन्तिम दो का सद्भाव केवली के बतलाया गया है । पश्चात् योग के आश्रय से उनके स्वामित्व को दिखलाते हुये यह कहा गया है कि प्रथम शुक्लध्यान तीन योग वाले के, दूसरा तीनों योगों में से किसी एक ही योगवाले के, तीसरा काययोगी के और चौथा योग से रहित हुए अयोगी के होता है।
आगे यह सूचित किया गया है कि श्रुतकेवली के जो पूर्व के दो शुक्लध्यान होते हैं उनमें प्रथम वितर्क व वीचार से सहित और द्वितीय वितर्क से सहित होता हुआ वीचार से रहित है। आग प्रसंगप्राप्त वितर्क और वीचार का लक्षण भी प्रगट किया गया है।
१. घ्या. श. १६-२७. २. त. सू. ६-३६. ३. ध्या. श. २८-६८. ४. प्राज्ञाविचय ४५-४६, अपायविचय ५०, विपाकविचय ५१, संस्थानविचय ५२-६२. ५. आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम् । त. सू. ६-३६. (यहां मूल सूत्रों में प्रार्तध्यान (६-३४),
रौद्रध्यान (६-३५) और शुक्लध्यान (६, ३७-३८) के स्वामियों का निर्देश करके भी धर्मध्यान के स्वामियों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया, यह विचारणीय है।) ६. तदविरत-देशविरत-प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स. सि. ६-३६. ७. त. वा. ६, ३६, १४-१६. (देखो पीछे पृ. १३) ८. आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । उपशान्त-कषाययोश्च । त. सू. ६, ३७-३८. ६. गाथा ६३ में उपयुक्त "निद्दिट्टा' पद से यह प्रगट है कि ग्रन्थकार के समक्ष उक्त प्रकार धर्मध्यान
के स्वामियों का प्ररूपक तत्त्वार्थसूत्र जैसा कोई ग्रन्थ रहा है।